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( अकरणकृत उपशमना का संप्रदाय विच्छिन्न हो जाने से मुख्यतया करणकृत उपशमना का विचार किया है । इस करणकृत उपशमना का अपरनाम सर्वोपशनना है और यह सिर्फ मोहनीयकर्म की होती है ।
सर्वोपशमना का विस्तार से वर्णन १ सम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा, २ देशविरतिलाभ, ३ सर्वविरति लाभ, ४ अनन्तानुबंधि-विसंयोजना, -५ दर्शनमोहनीय क्षपणा, ६ दर्शनमोहनीय उपशमना, ७ चारित्रमोहनीय उपशमना – इन सात द्वारों द्वारा किया गया है । यद्यपि देशविरतिलाभ आदि चार द्वारों में मोहनीय कर्म की किसी भी प्रकृति की सर्वथा उपशमना नहीं होती है, फिर भी सर्वोपशमना के प्रसंग में उनको ग्रहण इसलिये किया है कि चारित्र - मोहनीय की उपशमना देश और सर्व विरति की प्राप्ति होने के बाद ही होती है तथा अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद ही चारित्र मोहनीय की उपशमना होती है और दर्शनत्रिक का क्षय करने के बाद भी चारित्रमोहनीय की उपशमना होती है । इसीलिये इन चार द्वारों को भी सर्वोपशमना के प्रसंग में ग्रहण किया है । अन्यथा मूल मतानुसार तो सर्वोपशमना के सम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा, दर्शनत्रिक उपशमना, चारित्रमोहनीय उपशमना ये तीन और अन्य आचार्यों के मतानुसार अनन्तानुबधि की उपशमना सहित चार द्वार हैं। ऐसा वर्णन से प्रतीत होता है ।
यह सब कथन करने के बाद प्रथम सम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा का निर्देश किया है।
प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले जीव की योग्यता को बतलाया है कि सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त, उपशमलब्धि, उपदेश श्रवणलब्धि और प्रयोगलब्धि से युक्त संज्ञीपंचेन्द्रियजीव सम्यक्त्व उत्पन्न करने का अधिकारी है ।
अनन्तर यथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति इन तीन करणों की विस्तृत व्याख्या की है । अपूर्वकरण का स्वरूप बतलाने के प्रसंग में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और बधकाद्धा ( अपूर्व स्थितिबंध) का
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