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________________ प्राक्कथन पंचसंग्रह के इस अधिकार में उपशमना, निद्धत्ति और निकाचना इन तीन करणों की प्ररूपणा की गई है। यद्यपि उपशमना, निद्धत्ति और निकाचना रूप स्थिति कर्मदलिकों की बनती है, परन्तु उस प्रकार की स्थिति बनने में जीव के परिणाम कारण होने से इस अर्थ का बोध कराने के लिये उनके साथ करण शब्द का प्रयोग किया है। इन तीनों में मुख्य उपशमनाकरण है। इस उपशमनाकरण के दो भेद हैं-सर्वोपशमना और देशोपशमना। देशोपशमना, निद्धत्ति और निकाचना में प्रायः समानता है परन्तु निद्धत्त हुए कर्म में उद्वर्तना और अपवर्तना यह दो करण ही प्रवर्तित होते हैं और निकाचित में कोई करण प्रवर्तित नहीं होता। यह कर्मों की दशा आत्म-परिणामों की परिणतिविशेष में संभव होने के कारण इनका पृथक से वर्णन किया जाता है। __ देशोपशमना, निद्धत्ति और निकाचना प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की होती है तथा मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा क्रमशः आठ और एकसौ अट्ठावन प्रकार से होती है और स्वामी आदि भी प्रायः समान हैं। लेकिन सर्वोपशमना मात्र मोहनीय कर्म की होती है। यह यथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति-इन तीन करणों द्वारा होने से सर्वोपशमना कहलाती है। करणकृत होने से ही आत्मा अपने स्वरूप की उपलब्धि करती है । इसलिये यह महत्वपूर्ण है और इसका विस्तार से वर्णन किया है। विषय प्रवेश के रूप में जिसका परिचय इस प्रकार है सर्वप्रथम करणकृत और अकरणकृत इस प्रकार से उपशमना के दो प्रकारों को बतलाकर दोनों के सार्थक पर्यायवाची नाम बताये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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