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________________ १६६ पंचसंग्रह (६) तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त के बाद अनिवृत्तिकरण के अन्त में शेष कर्मों का भी स्थितिघात, रसघात एवं गुणश्रेणि होना बन्द हो जाता है जिससे आत्मा स्वभावस्थ होती है। यह अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क की विसंयोजना का रूपक है। अब उपशमना विधि का निर्देश करते हैं। अनन्तानुबंधि की उपशमना क्षयोपशम सम्यक्त्वी चौथे से सातवें तक चार में किसी भी गुणस्थान में वर्तमान मनुष्य उपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति के प्रसंग में बताये गये अनुसार करण काल के पूर्व अन्तर्मुहुर्त तक योग्यतायें प्राप्त करने के बाद यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करता है, परन्तु यहाँ अनन्तानुबंधि का बंधन होने से अपूर्वकरण के प्रथम समय से गुणसंक्रम भी होता है तथा अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे तब अनन्तानुबंधि का उदय न होने से एक उदयावलिका प्रमाण स्थिति शेष रखकर उसके ऊपर एक स्थितिबंध के काल प्रमाण अन्तम हुर्तकाल में अन्तमहुर्त प्रमाण स्थान में से अनन्तानुबंधि के दलिक दूर करने की क्रिया करता है । अर्थात् अन्तमहर्त में भोगने योग्य अनन्तानुबंधि के दलिकों को वहाँ से लेकर बध्यमान स्वजातीय प्रकृतियों में संक्रमित करता है और उतना स्थान दलिक रहित करता है तथा उदयावलिका प्रमाण प्रथम स्थिति को वेद्यमान प्रकृतियों में स्तिबुक संक्रम द्वारा संक्रमित कर सत्ता में से क्षय करता है । जिस समय अन्तरकरण की क्रिया पूर्ण होती है, उसके बाद के समय से द्वितीय स्थिति में विद्यमान सत्तागत अनन्तानुबंधि के दलिकों को प्रत्येक समय असंख्यातगुण उपशमित करते अन्तर्मुहूर्तकाल में सम्पूर्ण उपशांत करता. है जिससे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशांतता के काल में संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना इन छह में से कोई भी करण नहीं लगता है एवं प्रदेशोदय या रसोदय भी नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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