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परिशिष्ट : ४
अनन्तानुबन्धि को विसंयोजना एवं उपशमना सम्बन्धी विधि
पंचसंग्रहकार एवं कर्मप्रकृतिकार आदि कतिपय आचार्यों का मंतव्य है कि उपशम श्रेणि करने वाले जीवों को पहले अनन्तानुबंधि की त्रिसंयोजना होती है, उपशमना नहीं होती । परन्तु कुछ आचार्यों का मत है - अनन्तानुबंधि की उपशमना करके भी उपशम श्रेणि हो सकती है । इस प्रकार से अनन्तानुबंध कषाय के विषय में दो दृष्टिकोण हैं । जिनका यथाक्रम से स्पष्टीकरण करते हैं
अनन्तानुबंध की विसंयोजना
चारों गति के सर्वपर्याप्तियों से पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय क्षयोपशम सम्यक्त्व यथासम्भव चौधे से सातवें गुणस्थान तक के जीव उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति में बताये गये यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करते हैं । परन्तु यहाँ अनन्तानुबंधि का बंधन होने से अपूर्वकरण के प्रथम समय से अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क का उद्वलनानुविद्ध गुणसंक्रम प्रारम्भ होता है । जिससे बध्यमान शेष मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में प्रतिसमय असंख्यात गुणाकार रूप में अनन्तानुबंधि के दलिकों का संक्रम होता है तथा अनन्तानुबंध का उपशम नहीं होने से उनका अन्तरकरण नहीं होता है एवं अन्तरकरण के अभाव में अन्तरकरण की प्रथम और द्वितीय इस तरह दो स्थितियाँ भी नहीं होती हैं परन्तु अनिवृत्तिकरण के काल का एक संख्यातवां भाग शेष रहे तब नीचे एक उदयावलिका को छोड़कर उसके सिवाय सम्पूर्ण अनन्तानुबंधि का क्षय हो जाता है और शेष रही उदयावलिका को भी स्तिबुक संक्रम द्वारा वेद्यमान मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में संक्रमित कर अनन्तानुबंध की सत्ता रहित होता है ।
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