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पंचसंग्रह (६)
अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति में से दर्शनमोहनीयत्रिक के दलिक उतार कर अन्तरकरण के अन्दर अन्तिम एक आवलिका जितने काल में प्रथम समय में प्रभूत और उसके बाद के उत्तर-उत्तर समयों में विशेष हीन-हीन दलिक स्थापित करता है और अध्यवसायानुसार तीन में से किसी भी पुंज का उदय करता है जिससे यदि सम्यक्त्वमोहनीय का उदय हो तो आत्मा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, मिश्रमोहनीय का उदय हो तो मिश्रदृष्टि और मिथ्यात्वमोहनीय का उदय हो तो मिथ्यादृष्टि होती है, परन्तु अन्तरकरण का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका प्रमाण काल शष रहे तब किसी आत्मा को अनन्तानुबंधि कषाय का उदय हो तो वह आत्मा सासादन सम्यक्त्व प्राप्त कर अन्तरकरण जितना काल रहे, उतने काल तक सासादन भाव में रह बाद में अवश्य मिथ्यात्व गुणस्थान में जाती है। __अन्तरकरण में जिस आत्मा को अनन्तानुबंधि कषाय का उदय होता है, वह आत्मा अन्तरकरण का कुछ अधिक आवलिका काल बाकी रहे तब अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति में से दलिक अन्तरकरण में लाकर आवलिका प्रमाण काल में क्रमबद्ध स्थापित नहीं करती है। क्योंकि अन्तरकरण के अन्दर किसी पुंज का उदय नहीं होता है और अन्तरकरण पूर्ण होने के बाद तीनों पुज तैयार होने से उनमें से मिथ्यात्व का ही उदय होता है। यह अन्तरकरण का काल मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के अन्तर्मुहुर्त प्रमाण काल से बहुत अधिक होता है।
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