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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३ इस करण में तिर्यग्मुखी विशुद्धि नहीं होती है परन्तु पूर्व-पूर्व समय के अध्यवसाय की विशुद्धि की अपेक्षा उत्तरोत्तर समय के अध्यवसाय की विशुद्धि अनन्तगुण होती है और इस करण में भी अपूर्वकरणवत् स्थितिघात आदि चार पदार्थ प्रवर्तमान रहते हैं । ___ इस अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त काल के असत् कल्पना से सो समय मानें और उनके दस-दस समय के दस भाग की कल्पना करके बहुत से संख्यात भाग अर्थात् नव्व समय प्रमाण नौ भाग जितना काल जाये और दस समय प्रमाण एक संख्यातवाँ भाग जितना काल शेष रहे तब सत्ता में विद्यमान जो मिथ्यात्व की स्थिति है उसको उदय-समय से अर्थात् इक्यानवैवें समय से लेकर अनिवृत्तिकरण के शेष रहे संख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् इक्यान से सौ तक के दस समय प्रमाण नीचे रख उसके (सौ समय के) ऊपर एक अन्तर्महर्त काल में भोगने योग्य मिथ्यात्व के दलिकों को वहाँ से दूर करने की क्रिया शुरू करता है जिसे अन्तरकरण की क्रिया कहते हैं। इस क्रिया द्वारा अन्तर्महर्त प्रमाण स्थान में से मिथ्यात्व के दलिक हटाकर अर्थात् दूर कर नीचे और ऊपर इस तरह दोनों ओर डालकर वह अन्तर्महर्त प्रमाण स्थान विशेष रूप से मिथ्यात्व के दलिक बिना का करता है। उन अन्तरकरण के दलिकों के साथ गुणश्रेणि का भी ऊपर का संख्यातवां भाग छिन्न-भिन्न होकर दूर हो जाता है। जिस समय से अन्तरकरण क्रिया प्रारम्भ करता है उस समय से मिथ्यात्व की गुणश्रेणि अनिवत्तिकरण के चरम तक ही होती है, परन्तु उसके उपर के समयों में नहीं होती है और अन्तरकरण क्रिया समाप्त होने के बाद के समय से द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्व के दलिकों को असंख्यात गुणाकार रूप से उपशमित करते अन्तमुहूर्त में सम्पूर्ण उपशान्त करता है। ___ अन्तरकरण क्रिया काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होने पर भी वह काल अनिवृत्तिकरण के शेष रहे संख्यातवें भाग की अपेक्षा भी अत्यल्प होता है। जिससे अन्तरकरण की क्रिया पूर्ण होने के बाद भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अनिवत्तिकरण का काल बाकी रहता है। जितने काल में एक स्थितिघात करता है उतने ही काल में अन्तरकरण की क्रिया भी करता है। जिससे अन्तरकरण क्रिया का अन्तर्महर्त आवलिका के एक संख्यातवें भाग जितना छोटा (हीन) होता है। अन्तरकरण क्रिया पूर्ण होने के बाद अन्तरकरण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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