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________________ १६० पंचसंग्रह (8) है कि अपूर्वकरण में हजारों स्थितिघात होते हैं और इन एक-एक स्थितिघात में हजारों रसघात होते हैं।। ___गुणश्रेणि में प्रथम समय से अपवर्तनाकरण द्वारा स्थितिघात कर जिन-जिन स्थितियों का नाश करता है, उन स्थितिस्थानों में रहे हुए दलिक शीघ्र क्षय करने के लिए प्रत्येक समय में असंख्यात गुणाकार रूप से ऊपर से नीचे उतारे जाते हैं और जिस-जिस समय जितने-जितने दलिक उतारे जाते हैं, उन-उन दलिकों को उसी समय रसोदयवाली प्रकृतियों में उदय समय से लेकर और अनुदित सत्तागत प्रकृतियों में उदयावलिका से ऊपर के प्रथम समय से लेकर अपूर्वकरण और अनिव त्तिकरण के काल से कुछ अधिक काल तक के प्रत्येक समय में पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर ऊपरऊपर के समय में असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित किया जाता है, अर्थात् बंधादि के समय में हई निषेक रचना के दलिकों के साथ भोगने योग्य किये जाते हैं। ___अपूर्व स्थितिबंध में जो नवीन स्थितिबंध होता है वह पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग न्यून होता है। इस प्रकार से अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त होता है । स्थितिघात और स्थितिबंध एक साथ प्रारम्भ होते हैं और साथ ही पूर्ण होते हैं। अर्थात् एक स्थितिघात और एक स्थितिबंध का काल समान है। इसलिये अपूर्वकरण में जितने स्थितिघात होते हैं, उतने ही अपूर्व स्थितिबंध भी होते हैं । अनिवत्तिकरण—इस करण में एक साथ प्रवेश करने वाले जीवों के किसी भी एक समय में अध्यवसायों में फेरफार नहीं होता है, जिससे त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा भी विवक्षित एक-एक समय में समान अध्यवसाय होने से एक-एक अध्यवसाय ही होता है । अतएव इस करण में जितने समय होते हैं उतने ही अध्यवसायस्थान होते हैं । इस कारण इन अध्यवसायों की आकृति मोतियों की माला के समान होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 0000 अनिःकरण के अध्यवसाय स्थान
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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