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________________ १६२ पंचसंग्रह (8) गया होने से सत्तागत मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग हो जाते हैं। उनमें एक अन्तर्महुर्त प्रमाण अन्तरकरण की नीचे की स्थिति को छोटी अथवा प्रथम स्थिति और दूसरी सत्तागत सम्पूर्ण स्थिति प्रमाण अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति को बड़ी अथवा दूसरी स्थिति कहते हैं । अनिवृत्तिकरण की अथवा मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति दो आवलिका प्रमाण रहे तब मिथ्यात्व की गुणश्रेणि होना रुक जाता है और एक आवलिका शेष रहे तब स्थितिघात और रसघात होना भी रुक जाता है। अर्थात् उस समय से मिथ्यात्व का स्थितिघात और रसघात नहीं होता है एवं मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति दो आवलिका प्रमाण शेष रहे तब अन्तरकरण के ऊपर रहे मिथ्यात्व के दलिकों को उदीरणा प्रयोग द्वारा उदयावलिका में प्रक्षिप्त कर उदयावलिका में वर्तमान दलिकों के साथ भोगने योग्य नहीं करता जिससे आगाल का विच्छेद होता है और प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रहे तब उदीरणा का भी विच्छेद होता है । जब-जब जिन-जिन प्रकृतियों का अन्तरकरण होता है तब अन्तरकरण होने के पश्चात् उदीरणा प्रयोग द्वारा अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति में से दलिकों को उदयावलिका में प्रक्षिप्त कर उदयप्राप्त दलिकों के साथ भोगने योग्य करता है। इस उदीरणा का ही पूर्व पुरुषों ने आगाल ऐसा विशेष नामकरण किया है। अनिवत्तिकरण की समाप्ति के साथ ही अन्तरकरण के नीचे की मिथ्यात्व की छोटी स्थिति भी भोगी जाकर सत्ता में से पूर्णरूपेण नष्ट हो जाती है जिससे अनिवृत्तिकरण की समाप्ति के बाद के प्रथम समय में ही आत्मा अन्तरकरण में प्रवेश करती है और उस अन्तरकरण में मिथ्यात्व के दलिक न होने से बंजर भूमि को प्राप्त कर जैसे दावानल भी बुझ जाता है, उसी प्रकार अन्तरकरण रूप वंजर भूमि को प्राप्त कर अनादिकालीन मिथ्यात्व रूप दावानल भी बुझ जाता है। जिससे अन्तरकरण में प्रथम समय में ही आत्मा पूर्व में किसी भी समय प्राप्त नहीं किये मोक्ष रूपी वृक्ष के बीज समान अपूर्व आत्महित स्वरूप उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति करती है और उसी अन्तरकरण में उपशम सम्यक्त्व के साथ कोई आत्मा देशविरति अथवा सर्वविरति भी प्राप्त करती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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