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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३ १५७ इस तरह यावत् इक्कीसवें समय के अध्यवसायों में के अमुक अध्यवसाय यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय रूप पच्चीसवें समय तक होते हैं। जिससे यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय की जघन्य विशुद्धि से यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम पांच समय स्वरूप संख्यातवें भाग में के चरम समय रूप पांचवें समय तक दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें समय के अध्यवसायस्थान की जघन्य विशुद्धि क्रमश: एक-एक से अनन्तगुण अधिक होती है, वह पांचवें समय के अध्यवसाय की जघन्य विद्धि से प्रथम समय के अध्यवसाय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है। उससे संख्यात भाग स्वरूप पांच समय से ऊपर के छठे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण, उससे आदि के दूसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है । उससे संख्यात भाग के अपर के दूसरे अर्थात् सातवें समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण, उससे आदि के तीसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है, इस प्रकार ऊपर-ऊपर के एक-एक समय की जघन्य और प्रारम्भ के ऊपर-ऊपर के एक-एक समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनुक्रम से अमन्तगुण अधिक-अधिक होने से बीसवें समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय रूप पच्चीसवें समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण होती है। यहाँ पर समस्त समयों के अध्यवसायस्थानों की जघन्य विशुद्धि पूर्ण होती है परन्तु अन्तिम ऊपर के इक्कीस से पच्चीस तक के पांच समय रूप अन्तिम संख्यात भाग के समय प्रमाण अध्यवसायों की उत्कृष्ट विशुद्धि शेष रहती है, इसलिये पच्चीसवें समय की जघन्य विशुद्धि से चरम संख्यातवें भाग के प्रथम समय की अर्थात् इक्कीसवें समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण, उससे बाईस, तेईस, चौबीस और पच्चीसवें समय की उत्कृष्ट विशु द्धि अनुक्रम से एक-एक से अनन्तगुण होती है। इस प्रकार नदीगोल-पाषाण के न्याय से तथा भव्यत्व भाव के परिपाक के वश भवन एवं अभव्य भी अनेक बार यथाप्रवृत्तकरण करके ग्रंन्थिदेश तक आते हैं और अभव्य जीव मोक्ष की श्रद्धा बिना सांसारिक सुखों की इच्छा से द्रव्यचारित्र ग्रहण कर श्रुत सामायिक का लाभ प्राप्त कर नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होते हैं, परन्तु सम्यक्त्व आदि शेष तीन सामायिक प्राप्त नहीं करते हैं, तथा उन अभव्य जीवों का एवं अन्तर्मुहुर्त में समयक्त्व प्राप्त न करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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