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________________ १५८ पंचसंग्रह (६) वाले भव्य जीवों के यथाप्रवृत्तकरण की अपेक्षा यह यथाप्रवृत्तकरण विलक्षण है, जिससे अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले भव्य जीव यथाप्रवृत्तकरण के बाद तत्काल ही अपूर्वकरण करते हैं। जिसका स्वरूप इस प्रकार है अंपूर्वकरण यथा प्रवृत्त करण २००००००००००००००००००० ९०००००००००००००००० ३००००००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००००० १००००००००००००००००००००००००० २०००००००००००००००००००००००००००। ०००००००००००००००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००००००००००० ०००००००००००००००००००००००००००००००० . - 1 अपूर्वकरण-इस करण में यथाप्रवृत्तकरण के समान प्रत्येक समय असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण और पूर्व-पूर्व समय से उत्तर-उत्तर के समय में कुछ अधिक-अधिक अध्यवसाय होते हैं । इसलिए यहाँ भी तियंग्मुखी और ऊर्ध्व मुखी इस तरह दो प्रकार की विशुद्धि होती है। जिनका स्वरूप यथाप्रवृत्तकरण में कहे गये अनुरूप जानना चाहिए। परन्तु यथाप्रवृत्तकरण में पूर्व-पूर्व समय के अमुक-अमुक अध्यवसाय जैसे उत्तरोत्तर के समय में होते हैं, उसी प्रकार से इस करण में नहीं होते हैं, परन्तु पूर्वपूर्व के समय से उत्तरोत्तर समय में सभी अध्यवसाय नवीन ही होते हैं। जिससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो एक सौ अध्यवसाय होते हैं उनसे नितान्त भिन्न और अनन्तगुण विशुद्धि वाले दूसरे समय में एक सौ पांच, उनसे नितान्त भिन्न अनन्तगुण विशुद्वि वाले तीसरे समय में एक सौ दस, चौथे समय में एक सौ पन्द्रह, पांचवें समय में एक सौ बीस इस प्रकार यावत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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