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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३ १५५ दोनों करणों के कुल अध्यवसाय भी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं, परन्तु एक-एक समयवर्ती असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों की अपेक्षा सम्पूर्ण करणगत अध्यवसायों की संख्या असंख्यगुण असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होती है। सुगम बोध के लिए इस बात को असत्कल्पना से स्पष्ट करते हैं यथाप्रवृत्तकरण-करण काल का अन्तर्मुहर्त असंख्यात समय का होने पर भी असत्कल्पना से पच्चीस समय प्रमाण और प्रथम समय के असंख्यात. लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसायों की संख्या एक सौ और उत्तर-उत्तर के समय में कुछ अधिक-अधिक यानि पांच-पांच अधिक मानें तो यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में त्रिकालवर्ती सर्वजीवों की अपेक्षा एक सौ, दूसरे समय एक सौ पांच, तीसरे समय एक सौ दस अध्यवसाय हों, इस प्रकार उत्तर-उत्तर के समय में पांच-पांच अध्यवसाय अधिक होने से पच्चीस समयात्मक अन्तर्मुहूर्त के चरम समय में अर्थात् पच्चीसवें समय में अनेक जीवों की अपेक्षा कुल दो सौ बीस अध्यवसाय होंगे । यहाँ तिर्यगमुखी और ऊर्ध्वमुखी इस प्रकार दो तरह की विशुद्धि होती है । प्रथम समय के एक सौ अध्यवसाय हैं। उनमें पहला अध्यवसाय सबसे अल्पविशुद्धि वाला और उसकी अपेक्षा सौवां अध्यवसाय अनन्तगुण अधिक विशुद्धि वाला होता है जिससे प्रथमांकवर्ती अध्यवसाय की विशुद्धि की अपेक्षा अन्तिम अध्यवसाय तक के अध्यवसायों में के कितने ही अध्यवसाय अनन्तभाग अधिक, कितने ही असंख्यातभाग अधिक, कितने ही संख्यातभाग अधिक, कितने ही संख्यातगुण अधिक, कितने ही असंख्यातगुण अधिक और कितने ही अन्तिम अध्यवसाय अनन्तगुण अधिक विशुद्धि वाले होते हैं । इसी प्रकार दूसरे समय के एक से एक सौ पांच तक के जो अध्यवसाय हैं, उनमें प्रथम अध्यवसाय दूसरे आदि अध्यवसायों से अल्प विशुद्धि वाला है और उसी पहले समय की विशुद्धि की अपेक्षा एक सौ पांचवें अध्यवसाय तक के अध्यवसायों में कितने ही अध्यवसाय अनन्तभाग अधिक, कितने ही असंख्यातभाग अधिक, कितने ही संख्यातभाग अधिक, कितने ही संख्यातगुण अधिकः, कितने ही असंख्यातगुण और कितने ही अन्तिम अध्यवसाय अनन्त गुण अधिक विशुद्धि वाले होते हैं। इस प्रकार यथाप्रवत्तकरण के चरम समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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