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________________ १५४ पंचसंग्रह (8) इस तरह कुल परावर्तमान चौबीस प्रकृति बाँधता है लेकिन यदि देव और नारक हों तो ध्र वबंधिनी सैंतालीस, सातावेदनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, उच्चगोत्र, ये पांच और मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, प्रथम संहनन एवं संस्थान, शुभ विहायोगति, पराघात, उच्छ्वास, और त्रसदशक नामकर्म की ये बीस प्रकृति, इस प्रकार कुल पच्चीस प्रकृति बांधता है। परन्तु सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला सातवीं पृथ्वी का नारक हो तो वह मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का बन्ध ही नहीं करने वाला होने से मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र के बदले तिर्यंचद्विक और नीच गोत्र सहित पच्चीस अथवा उद्योत का बन्ध करे तो छब्बीस प्रकृति बांधता है। आयु का घोलमान परिणामों में बन्ध होता है, परन्तु यहाँ एक धारा प्रवर्धमान परिणाम होने से आयुकर्म की किसी भी प्रकृति का बन्ध नहीं होता है। ६ सामान्य से एक अन्तर्महर्त तक समान स्थिति-बन्ध होते रहने से वह एक स्थितिबन्ध कहलाता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद संक्लिष्ट या विशुद्ध परिणाम के अनुसार क्रमशः अधिक या हीन स्थितिबन्ध होता है परन्तु यहाँ क्रमशः प्रवर्धमान विशुद्ध परिणाम होने से पूर्व-पूर्व का स्थितिबन्ध पूर्ण कर उस-उस स्थितिबन्ध की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग न्यून-न्यून नया-नया स्थितिबन्ध करता है । ७ प्रत्येक समय बध्यमान शुभ प्रकृतियों का रस पूर्व-पूर्व के समय से अनन्तगुण अधिक-अधिक और अशुभ प्रकृतियों का अनन्तगुण हीन-हीन बाँधता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल रहने के बाद यथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति यह तीन करण करता है । इनमें से प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।। यथाप्रवृत्त और अपूर्व इन दोनों करणों में एक साथ प्रविष्ट जीवों के प्रत्येक समय विशुद्धि में तरतमता होती है, जिससे प्रत्येक समय त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण प्रवर्धमानहीयमान अध्यवसाय होते हैं और इन दोनों करणों के प्रभाव से मोहनीयकर्म का उसी प्रकार का विचित्र क्षयोपशम होता है कि जिससे उत्तर-उत्तर के समय में अध्यवसाय किंचित् अधिक-अधिक होते हैं और संपूर्ण एक अथवा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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