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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०२
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इस प्रकार से देशोपशमना का स्वरूप जानना चाहिये और इसके साथ उपशमनाकरण का वर्णन पूर्ण हुआ।
निद्धत्ति-निकाचना करण
उपशमनाकरण के पश्चात् अब क्रमप्राप्त निद्धत्ति और निकाचना करण का प्रतिपादन करते हैं
देसुवसमणा तुल्ला होइ निहत्ती निकायणा नवरि । संकमणं वि निहत्तीइ नत्थि सव्वाणि इयरीए ॥१०२।।
शब्दार्थ-देसुवसमणा-देशोपशमना के, तुल्ला-तुल्य, होइ-हैं, निहत्ती निकायणा-निद्धति और निकाचना करण, नवरि-किन्तु, संकमणंसंक्रमण, वि-भी, निहत्तीइ-निद्धति में, नथि- नहीं होता, सव्वाणिसभी, इयरीए-इतर में -निकाचना में ।
गाथार्थ-देशोपशमना के तुल्य निद्धत्ति और निकाचनाकरण हैं ! मात्र निद्धत्ति में संक्रमण नहीं होता और निकाचना में सभी करण लागू नहीं होते हैं ।
विशेषार्थ-निद्धत्ति और निकाचना इन दोनों करणों का स्वरूप देशोपशमना के तुल्य है। अर्थात् देशोपशमना में उसके भेद, स्वामी साद्यादि प्ररूपणा और प्रमाण आदि जो कुछ कहा गया है, वह सब जैसा का तैसा निद्धति और निकाचना के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । किन्तु विशेष यह है कि देशोपशमना में संक्रमण, उदवर्तना और अपवर्तना यह तीन करण प्रवर्तित होते हैं लेकिन निद्धत्ति में
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