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पंचसंग्रह : ६ उद्वर्तना और अपवर्तना इन दो करणों की प्रवृत्ति होती है और निकाचना में कोई भी करण सम्भव नहीं है। क्योंकि निकाचितदलिक समस्त करणों के अयोग्य हैं।
जहाँ-जहाँ गुणश्रेणि होती है, वहाँ प्रायः देशोपशमना, निद्धति, निकाचना और यथाप्रवृत्तसंक्रम भी सम्भव है । इसलिये अब उनका परस्पर अल्पबहुत्व बतलाते हैं
गुणसेढिपएसग्गं थोवं उवसामियं असंखगुणं । एवं निय निकाइय अहापवत्तेण संकंतं ॥१०३।।
शब्दार्थ-गुणसेढिपएसगं-गुणश्रेणि प्रदेशाग्न, थोनं-स्तोक, उवसामियं-उपशमित, असंखगुणं-असंख्यात गुण, एवं - इसी प्रकार, निहयनिद्धत्त, निकाइय-निकाचित, अहापवत्तेणसंकेतं-यथाप्रवृत्तथसंक्रम से संक्रमित ।
गाथार्थ-गुणश्रेणि प्रदेशाग्र स्तोक हैं, उससे उपशमित असंख्यातगुण हैं, इसी प्रकार अनुक्रम से निद्धत्त और निकाचित रूप हुए और उससे यथाप्रवृत्तसंक्रम से संक्रमित असंख्यातगुणअसंख्यातगुण हैं।
विशेषार्थ--किसी भी कर्म की गुणश्रेणि में गुणश्रेणि द्वारा जो दलिक स्थापित किये जाते हैं, वे जिनका कथन आगे किया जा रहा है, उनकी अपेक्षा अल्प-स्तोक हैं। उनसे देशोपशमना द्वारा जो उपशमित होते हैं, वे असंख्यातगुण हैं, उनसे जो दलिक निद्धत्ति रूप होते हैं, वे असंख्यातगुण हैं, उनसे निकाचित रूप दलिक असंख्यातगुण हैं और उनसे यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा संक्रमित दलिक असंख्यातगुण हैं ।
इस प्रकार से निद्धत्ति एवं निकाचना करण की व्याख्या जानना चाहिये।
अब उपसंहार रूप में आठों करणों के अध्यवसायों का अल्पबहुत्व बतलाते हैं
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