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________________ १३८ पंचसंग्रह : ६ इतर-अशुभप्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभागदेशोपशमना का स्वामी उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम के स्वामी के समान मिथ्या दृष्टि है । तथा जघन्य अनुभागदेशोपशमना के स्वामी इस प्रकार जानना चाहिए –तीर्थंकरनाम के सिवाय सभी प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग देशोपशमना का स्वामी अभव्यसिद्धिकयोग्य जघन्यस्थिति में वर्तमान एकेन्द्रिय जीव है । यद्यपि ज्ञानावरणपंचक, संज्वलनकषायचतुष्क, दर्शनावरणचतुष्क, नव नोकषाय, अन्तरायपंचक इन सत्ताईस प्रकृतियों का जघन्य संक्रम अपने-अपने अन्त समय कहा है, परन्तु वह नौवें और दसवें गुणस्थान में होता है और अनुभागदेशोपशमना तो अपूर्वकरण तक ही होती है। जिससे इन सभी प्रकृतियों की जघन्य अनुभागदेशोपशमना का स्वामी अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति वाला एकेन्द्रिय है। अभव्यप्रायोग्य अति अल्पस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव से अपूर्वकरणगुणस्थान वाले के अनुभाग अनन्तगुण अधिक होता है। इसीलिये उक्त एकेन्द्रिय ही जघन्य अनुभागदेशोपशमना का स्वामी माना है। तीर्थकरनामकर्म के जघन्य अनुभागसंक्रम का स्वामी ही उसकी जघन्य अनुभागदेशोपशमना का भी स्वामी है।। इस प्रकार से अनुभागदेशोपशमना का वर्णन जानना चाहिये । अब प्रदेशदेशोपशमना का विचार करते हैं प्रदेशदेशोपशमना के जघन्य और उत्कृष्ट यह दो भेद हैं। उनमें से उत्कृष्ट प्रदेशदेशोपशमना उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम तुल्य है। यानि जो जीव जिन प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का स्वामी है, वही जीव उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशदेशोपशमना का भी स्वामी है। मात्र उत्कृष्ट प्रदेशदेशोपशमना अपूर्वकरणगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये और जघन्य प्रदेशदेशोपशमना अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थिति में वर्तमान एकेन्द्रिय के ही होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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