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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १००
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शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों का देशोपशमना आश्रयी एक-एक प्रकृतिस्थान इस प्रकार हैज्ञानावरण और अन्तराय का पांच-पांच प्रकृतिरूप, दर्शनावरण का नौ प्रकृतिरूप और वेदनीय का दो प्रकृतिरूप इनकी देशोपशमना सादि आदि चार विकल्प वाली है । अपूर्वकरण से आगे उनमें के एक भी प्रकृतिस्थान की देशोपशमना होती नहीं है, किन्तु वहाँ से गिरने पर होती है इसलिये सादि, उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव - अनन्त और भव्य की अपेक्षा अध्रुव -सांत है ।
इस प्रकार से साद्यादि प्ररूपणा के साथ प्रकृति देशोपशमना का निरूपण पूर्ण हुआ । अब क्रमप्राप्त स्थिति-देशोपशमना के स्वरूप का विचार करते हैं ।
स्थिति-देशोपशमना
उवसामणा ठिइओ उक्कोसा संकमेण तुल्लाओ । इयरा वि किन्तु अभव्व उव्वलग अपुव्वकरणेसु ॥ १००॥
शब्दार्थ - उवसामणा - देशोपशमना, ठिइओ - स्थिति की, उक्कोसाउत्कृष्ट संक्रमेण - संक्रम के, तुल्लाओ- तुल्य, इयरावि - इतर - जघन्य भी, किन्तु - किन्तु, अभव्वउव्वलग- - अभव्य योग्य जघन्य स्थिति मे वर्तमान उलक, अपुव्वकरणे अपूर्वकरणवर्ती जीव के ।
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गाथार्थ — स्थिति की उत्कृष्ट देशोपशमना उत्कृष्ट संक्रम के तुल्य और जघन्य देशोपशमना भी जघन्य संक्रम-तुल्य है, किन्तु वह अभव्ययोग्य जघन्य स्थिति में रहते एकेन्द्रिय, उवलक
अथवा अपूर्वकरणवर्ती जीव के होती है । विशेषार्थ - मूल
प्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक
इस तरह स्थिति - देशोपशमना दो प्रकार की है तथा उन दोनों के
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