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________________ १३४ पंचसंग्रह : ६ करण से आगे चौबीस का, अथवा चौबीस की सत्ता वाले के चौबीस का, अनन्तानुबंधिचतुष्क और दर्शनत्रिक इन सात प्रकृतियों का जिसने क्षय किया है, ऐसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि के इक्कोस प्रकृतियों का सत्तास्थान होता है । इस प्रकार मोहनीयकर्म के ये छह प्रकृतिस्थान देशोपशमना के योग्य हैं। ___इन छह में से छब्बीस का स्थान छोड़कर शेष पांच स्थानों के कादाचित्क होने से उनकी देशोपशमना सादि और अध्र व इस तरह दो विकल्प वाली है और छब्बीस प्रकृतिक स्थान सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। उसमें जिसने सम्यक्त्व मिश्रमोहनीय की उद्वलना की, उसकी अपेक्षा अट्ठाईस से छब्बीस में आया, इसलिए सादि, अनादिमिथ्या दृष्टि के अनादि, अभव्य के ध्रुव-अनन्त और भव्य के अध्र व-सांत । इस प्रकार से मोहनीयकर्म की देशोपशमना योग्य प्रकृतिस्थानों की संख्या और उनके विकल्पों को जानना चाहिये । अब छठे नामकर्म के देशोपशमना योग्य स्थान और उनके सादि आदि विकल्पों का निर्देश करते हैं नामकर्ग के देशोपशमना के योग्य एक सौ तीन, एक सौ दो, छियानवे, पंचानवै, तेरानवे, चौरासी और वयासी प्रकृतियों के समु. दाय रूप सात प्रकृतिस्थान हैं। इनमें के आदि के चार स्थान अपूर्वकरणगुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त देशोपशमना के योग्य जानना चाहिये । शेष तेरानवै, चौरासी और वयासी प्रकृतिक ये तीन स्थान एकेन्द्रियादि में देवद्विकादि प्रकृतियों की उद्वलना के बाद होते हैं । उनकी देशोपशमना वे कर सकते हैं। शेष स्थान अपूर्वकरणगुणस्थान से आगे होते हैं। इसलिये वे देशोपशमना के अयोग्य हैं । इन सातों स्थानों की देशोपशमना, उन सभी स्थानों के अनित्य होने से सादि और अध्र व–सांत इस तरह दो विकल्प वाली है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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