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________________ १३३ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ ___ गोत्रकर्म के देशोपशमना सम्बन्धी दो प्रकृतिस्थान हैं-१ दोप्रकृतिक और २ एक-प्रकृतिक। जब तक उच्चगोत्र की उद्वलना नहीं की होती है, तब तक गोत्र की दोनों प्रकृतियां सत्ता में होती हैं। इसलिये दो प्रकृतियों का पहला प्रकृतिस्थान और उच्चगोत्र की उद्वलना करे तब एक नीचगोत्र की सत्ता होती है, जिससे उस एक प्रकृति का दूसरा प्रकृतिस्थान होता है। ___आयु कर्म के भी दो प्रकृतिस्थान हैं-१ दो-प्रकृति रूप और २ एक-प्रकृति रूप । जब तक परभवायु न बांधी हो तब तक भुज्यमान एक ही आयु की सत्ता होती है। इसलिये एक-प्रकृति का पहला और जब परभवायु का बंध करे तब दो-प्रकृति का दूसरा प्रकृतिस्थान होता है। इस प्रकार गोत्र के दो और आयु के दो इन चारों स्थानों की देशोपमना इनके अध्र व होने से सादि और अध्र व-सांत दो विकल्प वाली है। चौथे मोहनीयकर्म के देशोपशमना के योग्य छह प्रकृतिस्थान इस प्रकार हैं-इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतियों के समुदाय रूप । शेष तेरह, बारह आदि प्रकृतिक प्रकृतिस्थान अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में होते हैं। अतएव वे देशोपशमना के योग्य नहीं हैं। ___ इन स्थानों में से अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि के होता है। सत्ताईस का जिसने सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना की हो ऐसे मिथ्या दृष्टि के, छब्बीस का जिसने मिश्र तथा सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना की हो ऐसे मिथ्या दृष्टि अथवा अनादि मिथ्या दृष्टि के, पच्चीस का छब्बीस की सत्ता वाले मिथ्या दृष्टि के सम्यक्त्व उत्पन्न करते अपूर्वकरण से आगे, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्व की देशोपशमना होती नहीं है, पच्चीस प्रकृतियों की ही हो सकती है तथा अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते अपूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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