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________________ १३२ पंचसंग्रह : ६ को छोड़कर शेष एक सौ तीस प्रकृतियाँ अनादिसत्ता वाली है। उनमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधि की देशोपशमना अपने-अपने अपूर्वकरण से आगे नहीं होती है और शेष सभी प्रकृतियों की अपूर्वकरणगुणस्थान से आगे नहीं होती, उस स्थान से पतन होने पर होती है इसलिये सादि है, उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया उनकी अपेक्षा अनादि, अभव्य की अपेक्षा ध्रुव-अनन्त और भव्य की अपेक्षा अध्र व-सान्त है और जो उपर्युक्त अट्ठाईस अध्र वसत्ता वाली प्रकृतियां हैं, उनकी देशोपशमना उनके अध्र व सत्ता वाली होने से सादि और अध्र व–सांत इस तरह दो विकल्प वाली है। इस प्रकार से एक-एक प्रकृति की साद्यादि प्ररूपणा जानना चाहिये । अब प्रकृतिस्थानों की साद्यादि प्ररूपणा करते हैं। प्रकृतिस्थानों की साद्यादि प्ररूपणा गोयाउयाण दोण्हं चउत्थ छट्ठाण होइ छ सत्तण्हं । साइयमाइ चउद्धा सेसाणं एगठाणस्स ॥६६॥ शब्दार्थ-गोयाउयाण-गोत्र और आयु के, कोण्हं-दो, चउत्थ-चौथे मोहनीय के, छट्ठाण-छह स्थान, होइ-होते हैं, छ-छठं नाम-कर्म के, सत्तण्ह-सात स्थान, साइयमाइ-सादि आदि, चउद्धा-चार प्रकार के, सेसाणं-शेष कर्मों का, एगठाणस्स-एक-एक स्थान । गाथार्थ-गोत्र और आयु के दो स्थान, चौथे मोहनीय के छह स्थान और छठे नामकर्म के सात स्थान हैं, वे सभी स्थान सादि आदि चार प्रकार के हैं, शेष कर्मों का एक-एक स्थान है। विशेषार्थ-सत्ता में रही हुई एक या अनेक जितनी भी प्रकृतियों की एक साथ देशोपशमना हो सकती है, उनके समुदाय को स्थान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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