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________________ उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८ सादि-अनादि प्ररूपणा १३१ अणाइसंतीणं । साइयमाइचउद्धा देसुवसमणा मूलुत्तरपगईणं साइ अधुवा उ अधुवाओ ||६८ || शब्दार्थ - साइयमाइचउद्धा - सादि आदि चार प्रकार की है, देसुवसमणा — देशोपशमना, अणाइसंतीणं - अनादिसत्ता वाली, मूलुत्तरपगईणं - मूल और उत्तर प्रकृतियों की साइ- सादि, अध्रुवा – अध्र ुव, उ — और, अधुबाओ - अध्रुवमत्ता वाली । गाथार्थ - अनादिसत्ता वाली मूल और उत्तर प्रकृतियों की देशोपशमना सादि आदि चार प्रकार की है और अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों की सादि और अध्रुव है । विशेषार्थ - जिन मूल और उत्तर प्रकृतियों की ध्रुवसत्ता - अनादि काल से सत्ता है, उनकी देशोपशमना सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इस प्रकार चार विकल्प वाली है । मूलकर्म प्रकृतियों में ये चार विकल्प इस प्रकार जानना चाहियेमूल आठ कर्मों की अपूर्णकरणगुणस्थान से आगे देशोपशमना होती नहीं है, किन्तु वहाँ से पतन होने पर होती है, इसलिये सादि है । उस स्थान को जिसने प्राप्त नहीं किया उसकी अपेक्षा अनादि और अभव्यों की अपेक्षा ध्रुव है, क्योंकि अभव्य उस स्थान को प्राप्त करने वाले ही नहीं है तथा भव्य उस स्थान का स्पर्श करेंगे, तब देशोपशमना का अंत करेंगे, अत: उनकी अपेक्षा अध्रुव-सांत है । इस प्रकार से मूल कर्मों की देशोपशमना के चार विकल्प जानना चाहिये । अब उत्तरप्रकृतियों में इन्हीं चार विकल्पों का निर्देश करते हैठौक्रिय सप्तक आहारकसप्तक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, नारकद्विक, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और उच्चगोत्र रूप उवलनयोग्य तेईस तथा तीर्थंकर नाम, आयुचतुष्टय, इस तरह अट्ठाईस प्रकृतियों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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