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पंचसंग्रह : ६
उत्कृष्ट और जवन्य इस तरह दो-दो भेद हैं। उनमें से मूल अथवा त्तिर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति देशोपशमना उत्कृष्ट संक्रम के समान है। अर्थात अधिक से अधिक जितनी स्थिति का संक्रम होता है, उतनी स्थिति की देशोपशमना भी हो सकती है तथा संक्रमकरण में उत्कृष्ट स्थिति संक्रम के जो स्वामी बताये हैं और जिस प्रकार से उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम के विषय में सादि आदि विकल्पों का विचार किया है, उसी प्रकार से उत्कृष्ट देशोपशमना के सम्बन्ध में समझना चाहिये । अर्थान उत्कृष्ट देशोपशमना पूर्ण रूपेण उत्कृष्ट संक्रम के समान है।
इतर - जघन्यस्थितिदेशोपशमना भी जघन्यस्थितिसंक्रम जैसी है। परन्तु वह अभव्यप्रायोग्य जघन्यस्थिति में रहते हुए एकेन्द्रिय को जानना चाहिये। क्योंकि प्रायः समस्त कर्मों की अति जघन्य स्थिति उसी के होती है। परन्तु जो जीव उद्वलना योग्य तेईस प्रकृतियों के उद्वलक हों, वे उन प्रकृतियों की उद्वलना करते अन्तिम पल्योपम के असंख्यातवे भागप्रमाण स्थितिखंड शेष रहे तब जघन्य स्थितिदेशोपशमना करते हैं। उनमें आहारकसप्तक, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना एकेन्द्रियादि सभी जीव करते हैं और शेष चौदह प्रकृतियों के उद्वलक एकेन्द्रिय ही हैं। जिससे उनकी जघन्य स्थितिदेशोपशमना वही करते हैं। उसमें भी आहारकसप्तक की उद्वलना चार गुणस्थानों तक हो सकती है, इसलिये वहाँ तक के जीव उनकी जघन्यदेशोपशमना के स्वामी हैं तथा जिस प्रकृति को मिथ्यादृष्टि के जघन्य स्थितिदेशोपशमना नहीं हो सकती है, उस तीर्थकरनामकर्म की अपूर्वकरण में जघन्य स्थितिदेशोपशमना होती है।
इस प्रकार से स्थितिदेशोपशमना का विवेचन जानना चाहिये । अब अनुभाग और प्रदेश देशोपशमना का विचार करते हैं।
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