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पंचसंग्रह : ६ देशोपशमना का स्वरूप, स्वामी
मूलुत्तरकम्माणं पगडिट्ठितिमादि होइ चउभेया। देसकरणेहिं देसं समइ जं देससमणा तो॥६५॥ उवट्टण ओवट्टण संकमकरणाइं होंति नण्णाइ । देसोवसामियस्सा जा पुवो सव्वकम्माणं ॥६६॥
शब्दार्थ-मूलुत्तर कम्माणं-मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के, पगडिट्ठितिमादि-प्रकृति, स्थिति आदि, होइ-होते हैं, चउभेया-चार भेद, देसकर
हि-देशकरणों से, देसं-एकदेश, समइ-शमित करता है, जं- क्योंकि, देससमणा-देशोपशमना, तो-अतः।
उवट्टण-उद्वर्तना, ओवट्टण-अपवर्तना, संकमकरणाइं-संक्रमकरण, होंति-होते हैं, नण्णाई-अन्य नहीं, देसोवसामियस्सा-देशोपशमना के स्वामी, जा पुव्वो-अपूर्वकरणगुण स्थान तक, सव्वकम्माणं-सभी कर्मों के ।
गाथार्थ-मूल और उत्तर प्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति आदि चार भेद होते हैं । देशकरणों से उनके एक देश को शमित करता है, अतः देशोपशमना कहते हैं।
देशोपशमना द्वारा शमित दलिक में उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रम ये तीन करण होते हैं, शेष नहीं होते हैं । अपूर्वकरणगुणस्थान तक के जीव सभी कर्मों की देशोपशमना के स्वामी हैं।
विशेषार्थ-सर्वोपशमना का विस्तार से स्वरूप निर्देश करने के पश्चात् अब देशोपशमना का विचार प्रारम्भ करते हैं:
देशोपशमना इस नामकरण का कारण यह है कि करण के एकदेश-यथाप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण इन दोनों करणों के द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग (रस) और प्रदेश के अमुक भाग को उपशमित करना, किन्तु सर्वोपशमना की तरह सम्पूर्ण भाग को उपशमित नहीं करना देशोपशमना कहलाती है। देशोपशमना द्वारा उपशमित दलिकों में
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