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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७ १२६ मात्र संक्रम, उद्वर्तना, अपवर्तना यही तीन करण लागू होते हैं। देशोपशमना मूलकों और उनकी उत्तर प्रकृतियों की होती है तथा उनके जो प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश ये चार भेद हैं, उन प्रत्येक की होती है। जिससे मूलप्रकृतिविषयक और उत्तरप्रकृतिविषयक इस प्रकार देशोपशमना के दो भेद हैं और वे दोनों भी प्रत्येक प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश के भेद से चार-चार प्रकार के हैं। इस प्रकार देशोपशमना के आठ भेद होते हैं। यह देशोपशमना सर्वोपशमना की तरह केवल मोहनीयकर्म की ही नहीं, किन्तु सभी-आठों कर्मों की होती है। इस देशोपशमना द्वारा मूल अथवा उत्तर प्रकृतियों को उपशमित करने के स्वामी सामान्य से अपूर्वकरणगुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त वर्तमान प्रत्येक जीव हैं। यानि सभी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी-संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, देव, नारक और मनुष्य देशोपशमना के स्वामी हैं। उनमें से मनुष्य तो अपूर्वकरणगुणस्थान के चरमसमय तक वर्तमान स्वामी हैं। क्योंकि मनुष्यों को ही आठवां अपूर्वकरणगुणस्थान होता है और दूसरे जीव अपने-अपने गुणस्थान पर्यन्त ही देशोपशमना के स्वामी हैं। ___लेकिन इस स्वामित्व के विषय में भी जो विशेष है, अब उसको स्पष्ट करते हैं। देशोपशमना स्वामित्व विषयक विशेष खवगो उवसमगो वा पढमकसायाण दंसणतिगस्स । देसोवसामगो सो अपुव्वकरणंतगो जाव ॥६७॥ शब्दार्थ-खवगो-क्षपक, उवसमगो-उपशमक, वा-अथवा, पढमकसायाण-प्रथम कषाय के, दसणतिगस्स-दर्शनमोहत्रिक, देसोवसामगोदेशोपशमक, सो-वह, अपुत्रकरणंतगो-अपूर्वकरण के चरमसमय, जावतक पर्यन्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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