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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२
१२३ देशविरति, सम्मो-अविरतसम्यक्त्व, वा-अथवा, सासणभावंसासादनभाव को, वए–प्राप्त करता है, कोई-कोई।।
गाथार्थ-प्रमत्तगुणस्थान तक तो क्रमपूर्वक पड़ता है। फिर अनेक बार प्रमत्त और अप्रमत्तपने में परावर्तन करके कोई देशविरति होता है, कोई सासादनभाव को प्राप्त करता है।
विशेषार्थ-जिस क्रम से उपशमश्रोणि पर चढ़ा था, यानि चढ़ते हुए जिस क्रम से जिस-जिस गुणस्थान का स्पर्श किया था, गिरते उसी क्रम से उस-उस गुणस्थान का स्पर्श करता प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक आता है, अर्थात् दसवां, नौवां इत्यादि इस विलोम क्रम मे गुणस्थान स्पर्श करता आता है। तत्पश्चार प्रमत्त और अप्रमत्त संयत इन दोनों गुणस्थानों में अनेक बार परावर्तन करके कोई देशविरति होता है, कोई अविरतसम्यग्दृष्टि होता है और जिनके मत से अनन्तानुबंधिकषाय की उपशमना होती है, उनके मतानुसार कोई सासादनगुणस्थान को भी प्राप्त होता है और वहां से गिरकर मिथ्यात्व में जाता है।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में परावर्तन कर यदि कोई तद्भवमोक्षगामी जीव हो तो क्षपकश्रेणि मांड़ सकता है एवं कोई उपशम श्रोणि भी मांड़ सकता है, तथा कोई चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में क्षायोपमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर वहाँ स्थिर भी हो सकता है। तथा
उवसमसम्मत्तद्धा अंतो आउक्खया धवं देवो । जेण तिसु आउएसु बद्ध सु न सेढिमारुहई ॥६२॥
शब्दार्थ-उवसमसम्मत्तद्धाअंतो-उपशमसम्यक्त्वकाल में, आउखयाआयुक्षय होने पर, धुवं-अवश्य, देवो-देव, जेण - जिसने, तिसु-तीन, आउएसु-आयु में से, बद्ध सु-बांधा हो, न-नहीं, सोढि मारहइ-श्रेणि पर आरोहण करता है।
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