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________________ १२२ पंचसंग्रह : ६ ऽणंतगुणो-अनुभाग अनन्त गुण, असुभाण-अशु म प्रकृतियों का, सुभाणशुभ प्रकृतियों का, विवरीओ-विपरीत (अनन्तगुणहीन)। गाथार्थ-क्षपक, उपशमक और पतित उपशमक को वहाँवहाँ क्रमशः दुगुना स्थितिबंध होता है और अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनन्तगुणअधिक और शुभ प्रकृतियों का विपरीत (अनन्तगुणहीन) बंधता है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणि' पर चढ़ते क्षपक को जिस-जिस स्थान पर जितना-जितना स्थितिबंध होता है, उससे भी उपशमणि पर चढ़ते उपशमक को उसी स्थान पर दुगुना-दुगुना स्थितिबंध होता है और उससे भी उपशमणि से गिरते हुए के उसी स्थान पर दुगनादुगना बंध होता है। अर्थात् क्षपक के बंध की अपेक्षा चार गुना स्थितिबंध होता है। तथा क्षपक को जिस स्थान पर अशुभ प्रकृतियों का जितना रसबंध होता है, उसकी अपेक्षा उसी स्थान पर उपशमक को अनन्तगुण अनुभाग-रसबंध होता है। उससे भी उसी स्थान पर उपशमश्रेणि से गिरते हुए के अनन्तगुण रसबंध होता है किन्तु शुभ प्रकृतियों का रसबंध अशुभ प्रकृतियों के रसबंध से विपरीत होता है । अर्थात् शुभ प्रकृतियों का क्षपक के जिस स्थान पर जितना रसबंध होता है, उससे उपशमक को श्रेणि पर चढ़ते उसी स्थान पर अनन्तगुणहीन रसबंध होता है और उससे भी उपशमणि से गिरने वाले के उसी स्थान पर अनन्तगुणहीन रसबंध होता है तथा परिवाडीए पडिउं पमत्तइयरत्तणे बहू किच्चा। देसजई सम्मो वा सासणभावं वए कोई ॥६१॥ शब्दार्थ-परिवाडीए-क्रमपूर्वक, पडिउ-गिरकर, पमत्तइयरत्तणेप्रमत्त और इतर अप्रमत्तपने, बहू-अनेक बार, किच्चा-करके, देसजई. १. क्ष पकश्रेणि का स्वरूप छठे कर्मग्रन्थ (सप्ततिका) में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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