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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६०
१२१ काल से, अहिग–अधिक, मोहगुणसेढी-मोहनीय की गुणश्रेणि, पडिवत्ति -प्राप्ति, कसाउदए–कषाय के उदय में, तुल्ला-तुल्य, सेसेहि -शेष, कम्मेहि-कर्मों के।
गाथार्थ—मोहनीय की गुणश्रेणि वेद्यमान सज्वलन के काल से अधिक होती है। जिस-जिस कषाय के उदय में श्रेणि की प्राप्ति होती है, उसकी गुणश्रेणि शेष कर्मों के तुल्य होती है। विशेषार्थ-णि से गिरते मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की गुणश्रेणि काल की अपेक्षा वेद्यमान संज्वलन के काल से अधिक काल प्रमाण करता है। चढ़ते समय की गई गुणश्रेणि के तुल्य करता है। अर्थात् श्रीणि पर चढ़ते समय जितने स्थानों में गुणश्रेणि के क्रम से दलरचना हुई थी, गिरते समय भी उतने स्थानों में दलरचना होती है तथा जिस कषाय के उदय में उपशमणि पर आरूढ़ हुआ था-श्रेणि पर चढ़ा था, गिरते उसका जब उदय हो तब उसकी गुणश्रोणि शेष कर्मों की गुणश्रेणि के तुल्य होती है। जैसे किसी ने संज्वलन क्रोध के उदय में श्रेणि प्राप्त की तो श्रेणि से गिरते जब उसे संज्वलनक्रोध का उदय हो तब वहाँ से उसकी गुणश्रेणि शेष कर्मों के समान होती है। इसी प्रकार मान और माया के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। परन्तु संज्वलनलोभ के उदय में उपशमश्रेणि प्राप्त करने वाले के प्रतिपात काल में गिरते ही प्रथमसमय से संज्वलनलोभ की गुणश्रोणि शेष कर्मों की गुणश्रेणि के तुल्य होती है तथा शेष कर्मों के लिये तो जैसे चढ़ते समय का कथन किया है, उसी प्रकार पड़ते भी हीनाधिकता रहित जानना चाहिये । तथा---
खवगुवसामगपच्चागयाण दुगुणो तहिं तहिं बंधो। अणुभागोऽणंतगुणो असुभाण सुभाण विवरीओ ॥६॥
शब्दार्थ-खवगुवसामगपच्चागयाण-क्षपक, उपशमक और पतित उपशमक को, दुगुणो–दुगुना, तहिं तहिं-वहाँ-वहाँ, बंधो-बन्ध, अणुभागो
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