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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६, ८७
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से लेकर मान का, उसके बाद जहाँ क्रोध का उदयविच्छेद हुआ था, वहाँ से लेकर क्रोध का अनुभव करता है।
इस प्रकार चढ़ते हुए जिस समय जिसका उदयविच्छेद हुआ था, गिरते हुए वहाँ आने पर उसका उदय होता है । इस प्रकार से क्रमपूर्वक अनुभव करने के लिये द्वितीयस्थिति में से उनके दलिक खींचकर प्रथमस्थिति करता है । खींचे गये दलिकों को उदयसमयादि समयों में विशेष न्यून-न्यून क्रम से स्थापित करता है। उदयसमय में अधिक दलिक स्थापित करता है, द्वितीयसमय में विशेष हीन, इस प्रकार उदयावलिका के चरमसमयपर्यन्त गोपुच्छाकार में दलिक स्थापित करता है और उदयावलिका के ऊपर के समयों में असंख्यातअसंख्यातगुण स्थापित करता है। उदयावलिका के ऊपर प्रथमसमय में उदयावलिका के चरमसमय के दलिक निक्षेप की अपेक्षा असख्यातगुण, उससे दूसरे समय में असंख्यातगुण, उससे तीसरे समय में असंख्यातगुण, इस प्रकार पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात. असंख्यातगुण दलिक उदयवती प्रकृतियों में गुणश्रेणिशीर्षपर्यन्त स्थापित करता है-तत्पश्चात विशेषहीन-विशेषहीन स्थापित करता है।
उक्त कथन का सारांश यह है कि तत्काल उदयवतो प्रकृतियों की उदयावलिका में गोपुच्छाकार रूप में दलिकनिक्षेप करता है-स्थापित करता है और उदयावलिका के ऊपर के समय से लेकर गुणश्रेणि के शीर्षपर्यन्त तो गुणश्रोणि के क्रम से पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्य-असंख्यगुण दलिक और उसके बाद के समयों में विशेषन्यूनविशेषन्यून दलिक निक्षेप करता है और तत्काल अनुदयवती जो प्रकृतियां हैं, उनकी उदयावलिका नहीं करता है-उदयावलिका में दलिक स्थापित नहीं करता है, परन्तु उस एक आवलिका को छोड़कर ऊपर के समय से लेकर गुणध णि के शीर्षपर्यन्त पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्य-असंख्यगुण स्थापित करता है और उसके बाद अल्प-अल्प स्थापित करता है । तथा---
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