________________
पंचसंग्रह : ६
ओढत्ता दलियं पढमठिति कुणइ विइयठिइहितो | उदयाइ विसेसूणं आवलिउप्पि असंखगुणं ॥ ८६ ॥ जावइया गुणसेढी उदयवई तासु हीणगं परओ । उदयावलीमकाउं गुणसेढि कुणइ इराणं || ८७ ||
११८
शब्दार्थ -- ओकड़िढत्ता— अपकर्षितकर खींचकर, बलियं - दलिक, पढमठिति - प्रथमस्थिति, कुगइ — करता है, विइयठिइहितो-- द्वितीय स्थिति में से, उदयाइ - - उदयसमय से लेकर, विसेसूणं — विशेष न्यून - न्यून, आवलिउप्पि - आवलिका के ऊपर, असंखगुणं -- असंख्यातगुण ।
जावइया - जितनी, गुणसेढी—— गुणश्र ेणि, उदयवई - उदयवती प्रकृतियों, तासु – उनमें, हीगगं - हीन - - न्यून - न्यून, परओ- - बाद में, उदयावलीमकाउंउदयावलिका किये बिना, गुणसेढि -- गुणश्रेणि, कुणइ - करता है, इयराणंइतर - अनुदयवती प्रकृतियों की ।
गाथार्थ - द्वितीयस्थिति में से दलिक खींचकर प्रथमस्थिति करता है । उदयसमय से लेकर विशेष न्यून - न्यून और आवलिका के ऊपर असंख्यातगुण स्थापित करता है ।
उदयवती प्रकृतियों में गुणश्रेणि शीर्ष पर्यन्त गुणश्रेणि के क्रम से निक्षेप करता है । बाद के समयों में न्यून - न्यून करता है । इतर - अनुदयवती प्रकृतियों में उदयावलिका किये बिना ऊपर के समयों से गुणश्रेणिक्रम से गुणश्रेणि पर्यन्त दलरचना करता है ।
विशेषार्थ - उपशांतमोहगुणस्थान से गुणस्थान का काल पूर्ण कर गिरते हुए संज्वलनलोभ आदि कर्मों का अनुभव करता है । ग्यारहवें से दसवें गुणस्थान में आने पर पहले संज्वलनलोभ का अनुभव करता है उसके बाद नौवें गुणस्थान में जहाँ माया का विच्छेद हुआ था, वहाँ से लेकर माया का, तत्पश्चात् जहाँ मान का उदयविच्छेद हुआ था, वहाँ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International