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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५
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योग्य नहीं होता है । दृष्टित्रिक में संक्रमण और अपवर्तना होती है । ( इस गुणस्थान का काल पूर्ण होने पर) विलोमक्रम से यावत् प्रमत्तसंयत गुणस्थात तक गिरता है ।
विशेषार्थ - इस गुणस्थान में मोहनीयकर्म की एक - एक ( प्रत्येक ) प्रकृति उपशमित है, जिससे उसमें किसी भी करण की योग्यता नहीं रहती है । अर्थात् उन प्रकृतियों में संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, निधत्ति, निकाचना और उदीरणा करण प्रवर्तित नहीं होते एवं उनका उदय भी नहीं होता है । मात्र सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय को छोड़कर। क्योंकि उन तीन में अपवर्तना और संक्रम होता है । संक्रम तो मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय में होता है और अपवर्तना तीनों में होती है । इस प्रकार जिसने क्रोध के उदय से श्रेणि आरम्भ की हो उसकी अपेक्षा यह समझना चाहिये ।
जब मान के उदय से श्रेणि प्राप्त करे तब मान का अनुभव करता हुआ नपुंसकवेद में कहे गये क्रम से तीनों क्रोध को उपशमित करता है । तत्पश्चात् क्रोध के उदय में श्रेणि का आरम्भ करने वाले ने जिस क्रम से तीन क्रोध उपशमित किये थे, उसी क्रम से तीन मान को उपशमित करता है |
जब माया के उदय में श्रेणिआरम्भ करे तब माया का वेदन करता पहले नपुंसकवेद के क्रम से तीन क्रोध, उसके बाद तीन मान उपशमित करता है और उसके बाद क्रोध के उदय में श्रेणि आरम्भ करने वाला जिस क्रम से तीन क्रोध उपशमित करता है, उसी क्रम से तीन माया उपशमित करता है ।
जब लोभ के उदय में श्रेणि आरम्भ करे तब लोभ का वेदन करता हुआ पहले नपुंसकवेद को शांत करते जो क्रम कहा है, उसी क्रम से तीन क्रोध को, उसके बाद तीन मान को, तत्पश्चात तीन माया को उपशमित करता है और उसके बाद क्रोध के उदय में श्र ेणि
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