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पंचसंग्रह :
और गुणश्रेणि ये तीन पदार्थ होते हैं । उनमें से गुणश्रेणि उपशांतमोहगुणस्थान के काल के संख्यातवें भाग प्रमाण करता है, यानि उपशांतमोगुणस्थान के संख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने समयों में गुणश्रेणि- दलरचना करता है और वह गुणश्रेणि प्रदेश एवं काल से समान है ।
इस गुणस्थान में प्रत्येक समय के परिणाम एक सरीखे प्रति समय एक जैसे ही दलिक ऊपर की स्थिति में से उतरते हैं और सदृश ही रचना होती है। यानि उपशांतमोहगुणस्थान के पहले समय में जितने दलिक ऊपर से उतारे और प्रथमसमय से उस गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समयों में जिस प्रकार से स्थापित किये, उतने ही दलिक दूसरे समय में उतारता है और उस ( दूसरे ) समय से उस गुणस्थान के संख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने में ही उसी प्रकार से स्थापित करता है । इसी प्रकार चरमसमय पर्यन्त जानना चाहिए ।
पूर्व- पूर्व समय जैसे-जैसे कम होता जाता है; वैसे-वैसे ऊपर का एक-एक समय मिलता जाने से उपशांतमोहगुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण दलरचना का काल कायम रहता है । इसी कारण कहा है कि इस गुणस्थान में काल और प्रदेश की अपेक्षा गुणश्रेणि सरीखी करता है तथा स्थितिघात, रसघात पूर्व की तरह होता है किन्तु ग्रह के अभाव में गुणसंक्रम नहीं होता है । तथाकरणाय नोवसंतं संकमणोवट्टणं तु दिट्टितिगं । मोत्तण विलोमेणं परिवडई जा पमत्तोति ॥ ८५॥
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शब्दार्थ-करणाय - करण के योग्य, नोवसंतं - उपशमित दलिक नहीं होता, संकमणोवट्टगं - संक्रमण और अपवर्तना, तु किन्तु, दिठितिगं - दृष्टित्रिक को, मोत्तण- • छोड़कर, विलोमेणं - विलोमक्रम से, परिवडई - गिरता है, जा - यावत्, पमत्तोति - प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ।
गाथार्थ - दृष्टित्रिक को छोड़कर उपशमित दलिक करण के
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