________________
उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४
११३
भी सूक्ष्मसंप रायगुणत्थान के प्रथमसमय से लेकर चरमसमय पर्यन्त पूर्व पूर्व समय से उत्तर - उत्तर समय में असंख्य असंख्यगुण उपशमित करता है तथा नौवें गुणस्थान के चरमसमय में समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक जो अनुपशान्त था, उसे भी उस समय से लेकर उतने ही काल में दसवें गुणस्थान में उपशमित करता है ।
सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान के चरमसमय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का अन्तर्मुहूर्त का नाम और गोत्र कर्म का सोलह मुहूर्त का और वेदनीय का चौबीस मुहूर्त का स्थितिबंध होता है । उसी चरमसमय में द्वितीयस्थितिगत मोहनीयकर्म का समस्त दलिक पूर्णतया उपशमित हो जाता है और आगे के समय में उपशान्तमोहगुणस्थान प्राप्त करता है। इस गुणस्थान में मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियां सर्वथा शान्त होती हैं । उपशम का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और यही उपशान्तमोहगुणस्थान है ।
उपशान्तमोहगुणस्थान का स्वरूप
।
अन्तोमुहुत्तमेत्तं तस्सवि संखेज्जभागतुल्लाओ । गुणसेढी सव्वद्ध तुल्ला य पएसका लेहिं ॥ ८४ ॥
शब्दार्थ - अन्तोमुहुत्तमेत्त - अन्तर्मुहूर्त मात्र, तस्सवि - उसके भी, संखेज्जभाग तुल्लाओ - संख्यातवें भाग के बराबर, गुणसेढी—गुणश्रेणि, सम्बद्ध - सम्पूर्ण काल, तुल्ला - बराबर, य - और, पएसकालेहि-- प्रदेश और काल से ।
गाथार्थ - यह गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त मात्र रहता है । उसके भी संख्यातवें भाग प्रमाण गुणश्रेणि होती है और वह उसके सम्पूर्ण कालपर्यन्त काल एवं प्रदेश से अवस्थित होती है ।
विशेषार्थ - उपशान्तमोहगुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान में मोहनीयकर्म के अलावा शेष कर्मों में स्थितिघात, रसघात
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org