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________________ १०८ पंचसंग्रह : यानि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण के स्वरूप में ही शान्त होते हैं - उपशमित होते हैं । किट्टिकरणाद्धा की दो आवलिका ( और नौवें गुणस्थान की एक आवलिका) बाकी रहे तब बादर संज्वलनलोभ का आगाल होना बन्द हो जाता है, मात्र उदीरणा ही होती है और वह उदीरणा भी एक आवलिका पर्यन्त होती है । किट्टिकरणाद्धा के संख्याता भाग जायें तब संज्वलनलोभ का स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंत - राय इन तीन कर्म का दिवस पृथक्त्वप्रमाण तथा नाम, गोत्र और वेदनीय का बहुत से हजार वर्ष का स्थितिबंध होता है । उसके बाद किट्टिकरणाद्धा के चरम समय में संज्वलनलोभ का स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त का होता है । किन्तु किट्टिकरणाद्धा के संख्याता भाग जाने पर संज्वलनलोभ का जो अन्तर्मुहूर्त बंध हुआ था उससे यह अन्तर्मुहूर्त छोटा समझना चाहिए। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का एक रात्रि - दिवस और नाम, गोत्र, वेदनीय का कुछ कम दो वर्ष प्रमाण स्थितिबंध होता है । आगालविच्छेद होने के बाद जो एक उदीरणावलिका रहती है, उसका जो चरम समय वही किट्टिकरणाद्धा का तथा नौवें गुणस्थान का चरम समय है । 1 अब कट्टिकरणाद्धा के चरम समय में होने वाले कार्य का निर्देश करते हैं । किट्टिकरणाद्धा के चरम समय में सम्भव कार्य लोहस्स अणुवसंतं किट्टी उदयावली य पुव्वृत्तं । बायरगुणेण समगं दोण्णिवि लोभा समुवसन्ता ॥८१॥ शब्दार्थ - लोहस्स - लोभ का, अणुवसंत - अनुपशांत, किट्टीकिट्टियां, उदयावली-उदयावलिका, य-और, पुव्वुत्तं - पूर्वोक्त ( समय न्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक) बायरगुणेण - बादर संपराय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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