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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८० १०७ रस वाली किट्टि अनन्तगुणहीन-अनन्तगुणहीन रस वाली जानना चाहिए। अब प्रदेश का अल्पबहुत्व बतलाते हैं-पहले समय में की गई किट्टियों में जो बहुत प्रदेश वाली किट्टि है, वह दूसरे समय की गई किट्टियों में की सर्वाल्प प्रदेश वाली किट्टि की अपेक्षा अल्पप्रदेश वाली है, उससे दूसरे समय की गई किट्टियों में की जो सर्वाल्पप्रदेश वाली किट्टि है, वह असंख्यातगुण प्रदेश वाली है, उससे तीसरे समय की गई किट्टियों में की जो सर्वाल्पप्रदेश वाली किट्टि है, वह असंख्यातगुण प्रदेश वाली है । इस प्रकार पूर्व-पूर्व से उत्तरोत्तर असंख्य-असंख्यगुण चरमसमयपर्यन्त कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अधिकअधिक रस वाली किटियां अल्प-अल्प प्रदेश वाली होती हैं और अल्पअल्प रस वाली किट्टियां अधिक-अधिक प्रदेश वाली होती हैं। किट्टिकरणद्धाए तिसु आवलियासु समयहीणासु । न पडिग्गहया दोण्हवि सट्ठाणे उवसमिति ॥८॥ शब्दार्थ-किट्टिकरणद्धाए-किटिकरणाद्धा की, तितु-तीन, आवलियासु --आवलिका, समयहीणासु-समयहीन, न-नहीं, पडिग्गहया-पतद्ग्रहता, दोण्हवि-दोनों ही, सट्ठाणे-स्वस्थान में, उवसमिति-उपशमित होते हैं। गाथार्थ-किट्टिकरणाद्धा की समयन्यून तीन आवलिका शेष रहने पर संज्वलन लोभ पतद्ग्रह नहीं रहता है, अतएव उसके बाद दोनों लोभ स्वस्थान में उपशमित होते हैं। विशेषार्थ-किट्टिकरणाद्धा का समय न्यून तीन आवलिका बाकी रहे तब (और नौवें गुणस्थान की समयन्यून दो आवलिका बाकी रहे तब) संज्वलनलोभ की पतद्ग्रहता नष्ट होती है, जिसमे अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ के दलिक संज्वलन लोभ में संक्रमित नहीं होते हैं, किन्तु अन्य स्वरूप में हुए बिना अपने अपने स्थान में ही For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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