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________________ उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८२ गुणस्थान के, समगं--साथ, दोण्णिवि-- दोनों ही, लोभा- लोभ, -उपशांत होते हैं । १. गाथार्थ - उस समय किट्टियां, उदयावलिका और समय न्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक ही अनुपशांत है । बादरसंप रायगुणस्थान के साथ दोनों लोभ शांत होते हैं । विशेषार्थ - किट्टिकरणाद्धा के चरम समय में किट्टिकरणाद्धा काल में की गई द्वितीयस्थिति में रही हुई किट्टियां, समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक और उदयावलिका इतना ही संज्वलन लोभ अनुपशमित बाकी रहता है, शेष सब शांत होता है' तथा उसी चरम समय में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण लोभ संपूर्ण शांत होता है तथा अनिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थान भी पूर्ण होता है एवं बादर संज्वलनलोभ के उदय उदीरणा का विच्छेद होता है और दसवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । तथा १०६ समुवसंत्ता सेसद्ध तणुरागो तावइया किट्टिओ उ पढमठिई । वज्जिय असंखभागं हिट्ठवरिमुदीरए शब्दार्थ - सेसद्ध - शेष काल में, (किट्टिवेदनाद्धा काल में ), तणुरागो - सूक्ष्म संप रायगुणस्थान, तावइया - उतना ही, किट्टिओ - किट्टियों की, उ-और, पढमठिई - प्रथम स्थिति, वज्जिय— छोड़कर, असंखभागं - असंख्यातवें भाग, हिट्ठवरि- नीचे ऊपर की, उदीरए - उदीरणा, सेसा - शेष की । Jain Education International For Private & Personal Use Only सेसा ॥८२॥ अवशिष्ट उस उदयावलिका को दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मकिट्टियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित कर अनुभव करता है, समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक उतने ही काल में शांत होता है और किट्टियों में कितनी ही किट्टियों को भोगकर क्षय करता है, कितनी ही को शांत करता है । www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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