________________
पंचसंग्रह :
सूक्ष्मकिट्टियों में संक्रमित करके अनुभव करता है। इसीलिए एक आवलिका अधिक करना कहा है ।
१००
अश्वकर्णकरणाद्धा के प्रथम समय से अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन लोभ, इस तरह तीनों लोभों को एक साथ उपशमित करना प्रारम्भ करता है तथा उस अश्वकर्णकरणाद्धा के काल में अन्य जो कुछ करता है अब उसका निर्देश करते हैं । अश्वकर्णकरणाद्धा में करणीय
संताणि बज्झमाणग सरूवओ फड्डुगाणि जं कुणइ । सा अस्सकण्णकरणद्धा मज्झिमा किट्टिकरणद्धा ॥ ७५ ॥
शब्दार्थ - संताणि - सत्तागत, बज्झमाणग— बध्यमान, सरूवओ -- स्वरूप से, फड्डगाणि - स्पर्धक, जं- जो, कुणइ - करता है, सा -- वह, अस्सकण्णकरणद्धा - अश्वकर्ण करणाद्धा, मज्झिमा - मध्यम, किट्टिकरणद्धा - किट्टि -
करणाद्धा |
गाथार्थ - लोभ के सत्तागत स्पर्धकों को तत्काल बध्यमान स्पर्धक स्वरूप से जो करता है, वह अश्वकर्ण करणाद्धा है । उसके बाद कट्टिकरणाद्धा होता है ।
विशेषार्थ - माया के जो दलिक संज्वलनलोभ में संक्रमित हुए हैं और पूर्व में जो संज्वलनलोभ के दलिक बंधे हुए सत्तागत है, उनको तत्काल बध्यमान संज्वलनलोभ रूप में यानि तत्काल बंधते हुए संज्वलन लोभ की तरह अत्यन्त नीरस जिसमें किया जाता है वह अश्वकर्णकरणाद्धा है ।
इसका विशेष विचार इस प्रकार है- अश्वकर्णकरणाद्धा के काल में वर्तमान माया के जो दलिक संज्वलन लोभ में संक्रमित हुए हैं तथा पूर्व में बंधे हुए लोभ के जो दलिक सत्ता में हैं, उनको प्रति समय ग्रहण करके तत्काल बंधते हुए संज्वलनलोभ के जैसे अत्यन्त हीन रसवाला करता है, किन्तु प्रवर्धमान रसाणुओं के क्रम को तोड़ता नहीं
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International