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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६ १०१ है । संसार में परिभ्रमण करते इससे पहले किसी भी काल में बंधोश्रयी ऐसे हीन रस वाले स्पर्धक नहीं बांधे थे, परन्तु विशुद्धि के कारण अभी ही सत्ता में इतने अधिक हीन रस वाला करता है। ___ इस प्रकार प्रति समय अपूर्व स्पर्धक करते संख्याता स्थितिबंध जायें तब अश्वकर्णकरणाद्धा पूर्ण होता है। तत्पश्चात् किट्टिकरणाद्धा में प्रवेश करता है। उस समय संज्वलनलोभ का स्थितिबंध दिवसपृथक्त्व होता है और शेष कमों का वर्षपृथक्त्व प्रमाण होता है। किट्टिकरणाद्धा के काल में पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकों में से दलिकों को ग्रहण करके समय-समय (प्रतिसमय) अनन्त-अनन्त किट्टियां करता है। ___ यहाँ अपूर्वस्पर्धक और पूर्वस्पर्धक इन दोनों को कहने का तात्पर्य यह है कि अपूर्वस्पर्धक के काल में जितने स्पर्धक तत्काल बंधते संज्वलनलोभ के जैसे अल्परस वाले किये हैं, तथा उस काल में जिन स्पर्धकों के अपूर्वस्पर्धक नहीं किये हैं, उन दोनों को ग्रहण करके किट्टियां करता है। अपूर्वस्पर्धककाल में सत्तागत सभी स्पर्धक अपूर्व नहीं होते हैं, कितनेक होते हैं और कितनेक वैसे ही रहते हैं। ___ अब किट्टियों के स्वरूप और प्रथम समय में कितनी किट्टियां करता है ? यह स्पष्ट करते हैं। किट्टियों का स्वरूप अप्पुब्बविसोहीए अणुभागोणूण विभयणं किट्टि । पढमसमयंमि रसफड्डगवग्गणाणंतभाग समा ॥७६॥ शब्दार्थ- अप्पुवविसोहीए-अपूर्व विशुद्धि द्वारा, अणुभागोणूण-अनुभाग (रस) को न्यून करना, विभयणं-खंडित करके, किट्टि-किट्टि, पढमसमयंमि-प्रथम समय में, रसफड्डगवग्गाणंतभाग समा-रसस्पर्धकगत' वर्गणा के अनन्तवें भाग समान ।। गाथार्थ-अपूर्वविशुद्धि द्वारा प्रवर्धमान रसाणु का क्रम खंडित कर अत्यन्त हीन रस करना किट्टि कहलाता है। प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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