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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७४
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आदि के दो भागों में दलिक निक्षेप करता है और तीसरा भाग किट्टिवेदनाद्धा-किट्टिवेदन का काल है।
विशेषार्थ-माया के उदयविच्छेद के बाद के समय से लेकर लोभ का उदय होता है। उस लोभ की दूसरी स्थिति में से दलिकों को उतारकर उनकी प्रथमस्थिति करता है और लोभ की प्रथमस्थिति के तीन भाग करता है-१ अश्वकर्ण करणाद्धा, २ किट्टिकरणाद्धा और, ३ किट्टिवेदनाद्धा। __ प्रवर्धमान रसाणु वाली वर्गणाओं का क्रम खण्डित किये सिवाय अत्यन्त हीन रस वाले स्पर्धक करना. उन्हें अपूर्वस्पर्धक कहते हैं । उन अपूर्वस्पर्धकों को करने का काल अश्वकर्णकरणाद्धा कहलाता है।
उनका इतना अधिक रस न्यून कर देना कि जिसके कारण प्रवर्धमान रस वाली वर्गणाओं का क्रम टूट जाये, उसे किट्टि कहते हैं और जिस काल में किट्टियां हों, वह किट्टिकरणाद्धा कहलाता है। ___ नौवें गुणस्थान में की हुई उन किट्टियों के अनुभव काल को किट्टिवेदनाद्धा कहते हैं।
जिस समय लोभ का उदय होता है, उस समय से नौवें गुणस्थान का जितना काल बाकी है, उसके दो भाग होते हैं। उनमें के प्रथमभाग में अपूर्वस्पर्धक होते हैं और द्वितीयभाग में किट्टियाँ होती हैं
और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में किट्टिकरणाद्धा में की हुई किट्टियों का वेदन-अनुभव करता है। नौवें गुणस्थान में जिस समय से लोभ का उदय होता है, उस समय से लेकर उसका जितना काल शेष है, उससे उसकी प्रथमस्थिति एक आवलिका अधिक करता है। आवलिका अधिक कहने का कारण नौवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त तो लोभ के रसोदय का अनुभव करता है, लेकिन उसकी प्रथमस्थिति की एक आवलिका बाकी रहती है और नौवें गुणस्थान को पूर्णकर दसवें गुणस्थान में जाता है । वहाँ अवशिष्ट उस आवलिका को स्तिबुकसंक्रम द्वारा
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