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पंचसंग्रह : ६ इसी प्रकार मान के चरमोदय काल में मान, माया का कितना गुणा बंध होता है, यह बताया है । जैसे कि क्षपकणि में अपने-अपने चरमोदय समय में क्रोध का दो मास, मान का एक मास और माया का पन्द्रह दिवस का स्थितिबंध होता है। उपशमश्रेणि में क्रोध के चरमोदय काल में क्रोध, मान और माया प्रत्येक का चार मास का जघन्य स्थितिबंध होता है। जिससे क्रोध का दुगुना, मान का चार गुणा और माया का आठ गुणा घटित हो सकता है। इसी प्रकार मान के चरमोदय काल में मान और माया का दो मास का जघन्य स्थितिबंध होता है, वह क्षपकश्रेणि के जघन्य स्थितिबंध से दुगुना और चौगुना होता है। माया के चरमोदय काल में उसका एक मास का जघन्य स्थितिबंध होता है, वह क्षपकणि में चरमोदय काल में होने वाले जघन्य स्थितिबंध से दुगुना है, तथा शेष ज्ञानावरणादि कर्मों का सर्वत्र संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबंध होता है, मात्र पूर्व-पूर्व स्थितिबंध से उत्तरोत्तर स्थितिबंध हीन-हीन होता है ।
इस प्रकार से क्रोध, मान, माया के स्थितिबंध का स्पष्टीकरण करने के पश्चात् अब संज्वलन लोभ के सम्बन्ध में विचार करते हैं। संज्वलन लोभ की वक्तव्यता
लोभस्स उ पढमठिई बिईयठिइओ उ कुणइ तिविभागं । दासु दलणिक्खेवो तइयो पुण किट्टीवेयद्धा ॥७४॥
शब्दार्थ-लोभस्स-लोभ की, उ-और, पढमठिई-प्रथम स्थिति, बिईयठिइओ-द्वितीयस्थिति में, उ-और, कुणइ---करता है, तिविभागं-- तीन विभाग, दोसु-दो में, दलणिवखेवो-दलिकनिक्षेप, तइयो-तीसरा, पुण–पुनः, किट्टीवेयद्धा-किट्टिवेदनाद्धा--किट्टीवेदन काल ।
गाथार्थ-(माया का उदयविच्छेद होने के बाद) लोभ की द्वितीयस्थिति में से तीन भाग वाली प्रथमस्थिति करता है।
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