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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७३ ६७ श्रेणि में, तयणंतर पगईए--तदनन्तर प्रकृति का, चउग्गुणोण्णे सु-चौगुना और अन्य प्रकृतियों का, संखगुणो–संख्यातगुणा । गाथार्थ-संज्वलन क्रोधादि का अपने-अपने उदय के चरम समय में क्षपकश्रेणि में जो जघन्य स्थितिबंध होता है उससे उपशमणि में वह बंध दुगुना होता है। तदनन्तर प्रकृति का चौगुना और अन्य कर्मों का संख्यातगुण होता है। विशेषार्थ-क्षपकवेणि में क्षपक को अपने-अपने उदय के चरम समय में संज्वलन क्रोधादि का जो जघन्य स्थितिबंध होता है, वहाँ वह स्थितिबंध उपशमक को दुगुना होता है, उसी समय तदनन्तर प्रकृति का चौगुना और इसके बाद की प्रकृति का आठ गुना होता है और अन्य कर्मों का संख्यातगुण होता है। इस संक्षिप्त कथन का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है क्षपकणि में संज्वलनक्रोध का अपने-अपने उदय के चरम समय में दो मास का जघन्य स्थितिबंध होता है । उपशमणि में मन्द परिणाम होने से वहीं अपने उदय के चरम समय में दुगुना यानि चार मास प्रमाण स्थितिबंध होता है और उसी समय क्रोध की अनन्तरवर्ती प्रकृति जो मान है, उसके लिए विचार करें तो उसका चार गुणा यानि चार मास प्रमाण बंध होता है और मान की अनन्तरवर्ती प्रकृति माया का आठ गुना बंध होता है । इसका कारण यह है कि संज्वलनक्रोध के चरमोदय काल में क्रोधादि चारों का चार मास का जघन्य स्थितिबंध होता है। वह चार मास प्रमाण बंध क्षपकश्रेणि में क्रोध, मान और माया के बंधविच्छेदकाल में होने वाले बंध से दुगुना, चार गुनो और आठ गुना है। यहाँ क्षपकवेणि में क्रोध, मान और माया का अपने-अपने अन्तिम उदय समय में जो जघन्य स्थितिबंध होता है, उससे उपशमणि में क्रोध के चरमोदय काल में क्रोधादि तीन का बंध कितना गुणा होता है, यह बताया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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