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________________ ८८ पंचसंग्रह : ६ उस स्थितिबंध के पूर्ण होने के बाद वेदनीय कर्म का भी उत्तर का स्थितिबंध संख्यात वर्षप्रमाण होता है । वेदनीयकर्म का संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबंध होने के बाद से समस्त कर्मों का स्थितिबंध संख्यातवर्षप्रमाण होता है और पूर्व-पूर्व स्थितिबंध से उत्तर-उत्तर का स्थितिबंध संख्यातगुण हीन-हीन होता है। तत्पश्चात् हजारों स्थितिबंध हो जाने के बाद हास्यषट्क और परुषवेद ये सातों नोकषाय शांत होती हैं। हास्यषट्क उपशांत होने के बाद पुरुषवेद का अनुपशमित जितना दलिक शेष रहता है, उसका प्रमाण इस प्रकार है जं समए उवसंतं छक्कं उदयट्टिई तया सेसा । पुरिसे समऊणावलिदुगेण बंधं अणुवसंतं ॥६८।। शब्दार्थ-जं समए-जिस समय, उवसंतं-उपशांत हुआ, छक्कं(हास्य) षट्क, उदयट्ठिई-उदयस्थिति, तया-तब, सेसा-शेष, पुरिसे - पुरुषवेद का, समऊणावलिदुर्गण--समयोन आवलिकाद्विक, बंधं--- बंधा हुआ, अणुवसंतं--अनुपशांत । गाथार्थ-जिस समय हास्यषट्क उपशांत हुआ उस समय पुरुषवेद का एक उदयस्थिति और समयोन आवलिकाद्विक काल में बंधा हुआ दलिक अनुपशांत शेष रहता है। विशेषार्थ-जिस समय हास्यादि छह नोकषाय उपशमित हुई, उस समय पुरुषवेद की एक उदयस्थिति-मात्र उदय-समय शेष रहता है और शेष सभी प्रथमस्थिति भोग ली जाती है। उस प्रथमस्थिति के चरम समय में पुरुषवेद का अंतिम सोलहवर्षप्रमाण स्थितिबंध होता है। उसके साथ द्वितीयस्थिति में समयन्यून आवलिकाद्विककाल में बंधा हुआ दलिक अनुपशमित शेष रहता है। शेष सबकी उपशमना हो चुकी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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