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________________ ८६ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अविकार : गाथा ६६, ७० जिसका विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है आगालेण समगं पडिग्गहया फिडई पुरिसवेयस्स । सोलसवासिय बंधो चरिमो चरिमेण उदएण ॥६६॥ तावइ कालेणं चिय पुरिसं उवसामए अवेदो सो । बंधो बत्तीससमा संजलणियराण उ सहस्सा ॥७०॥ शब्दार्थ-आगालेण समगं---आगाल के साथ, पडिग्गहया–पतद्ग्रहता, फिडइ-नष्ट हो जाती हैं, पुरिसवेजस्त-पुरुषवेद की, सोलसवासिय-----सोलह वर्ष का, बंधो-बंध,चरिमो-चरम, चरिमेण उदएण- अन्तिम उदय के साथ । तावइ कालेणं--उतने काल में, चिय-ही, पुरिसं-पुरुषवेद को, उवसामए-उपशमित करता है, अवेदो-अवेदक, स-वह, बंधो-बंध, बत्तीस समा-बत्तीस वर्ष प्रमाण, संजलणियराण-संज्वलनकषाय और अन्य कर्मों का, उ-और, सहस्सा–संख्याता हजार वर्ष । गाथार्थ--आगाल के साथ पुरुषवेद की पतद्ग्रहता नष्ट हो जाती है। सोलह वर्ष का चरमबंध भी अंतिम उदय के साथ नष्ट हो जाता है तथा अवेदक होता हुआ अनुपशमित पुरुषवेद को उतने ही काल में उपशमित करता है। जिस समय पुरुषवेद उपशांत हुआ, उस समय संज्वलन कषाय का बत्तीस वर्ष प्रमाण और इतर कर्मों का संख्याता हजार वर्ष का बंध होता है। विशेषार्थ-पुरुषवेद की प्रथम स्थिति की दो आवलिका शेष रहती हैं तब उसके आगाल का विच्छेद होता है और उसी समय पुरुषवेद की पतद्ग्रहता भी नष्ट होती है। यानि हास्यादि षट्कादि प्रकृतियों के दलिक पुरुषवेद में नहीं परन्तु संज्वलनक्रोधादि में संक्रमित होते हैं। पुरुषवेद का सोलहवर्षप्रमाण जो अंतिम स्थितिबंध होता है, वह भी प्रथमस्थिति के अंतिम उदयसमय के साथ नष्ट हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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