________________
उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७
I
विशेषार्थ - अन्तरकरण में प्रवेश करके जीव पहले समय में ही मोहनीय का जो बंध करता है, उससे उसके बाद का बंध संख्यातगुणहीन करता है । यानि अन्तरकरण के पहले समय में जो बंध करता है, उसके संख्यातवें भागप्रमाण बाद का बंध करता है । जो बंध जिसकी अपेक्षा संख्यातवे भाग है, वह बंध उसकी अपेक्षा संख्यातगुणहीन ही कहलाता है तथा मोहनीय वर्जित शेष कर्मों का पूर्व बंध से उत्तर बंध असंख्यातगुणहीन करता है - असंख्यातवें भाग प्रमाण करता है ।
८७
इस प्रकार की क्रिया करते अन्तर्मुहूर्त में नपुंसकवेद उपशांत करता है और उसको उपशमित करने के बाद स्त्रीवेद को उपशमित करने की क्रिया प्रारंभ होती है तथा उसको हजारों स्थितिबंध बीतने के बाद नपुंसकवेद की उपशमना के अनुसार उपशमित करता है । अर्थात् नपुंसकवेद के उपशमित होने के बाद हजारों स्थितिघात जितने काल में स्त्रीवेद को भी उपशमित करता है और स्त्रीवेद को उपशमित करते हुए उसका संख्यातवां भाग उपशांत होने के अनन्तर घाति कर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबंध होता है ।
उस संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबंध होने के बाद का जो स्थितिबंध होता है, उस समय से लेकर केवलज्ञानावरण को छोड़कर शेष चार ज्ञानावरण का केवलदर्शनावरण को छोड़कर शेष तीन दर्शनावरण का एकस्थानक रसबंध करता है । उसके बाद हजारों स्थितिबंध होने के बाद स्त्रीवेद उपशांत होता है। स्त्रीवेद के उपशांत होने के अनन्तर नपुंसकवेद को जिस तरह उपशमित किया, उसी प्रकार हास्यषट्क और पुरुषवेद इन सात प्रकृतियों की एक साथ उपशमन क्रिया प्रारम्भ करता है ।
इन सात को उपशमित करते उनका संख्यातवां भाग जब उपशमित हो जाता है तब नाम और गोत्र कर्म का संख्यातवर्षप्रमाण और तीसरे वेदनीय कर्म का असंख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबंध होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org