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पंचसंग्रह : &
स्थिति दो आवलिका प्रमाण बाकी रहे तब गुणश्र णि बंद हो जाती है और प्रथम गुणश्रेणि द्वारा अन्तरकरण के अमुक भाग में जो दलिक रचना हुई थी वह भी अन्तरकरण के साथ ही दूर हो जाती है । इस तरह इक्कीस प्रकृतियों की अन्तरकरण करने की क्रिया एक ही साथ प्रारम्भ होती है और समाप्त भी साथ ही होती है ।
कदाचित् यहाँ यह प्रश्न हो कि इक्कीस प्रकृतियों में से उन्नीस प्रकृतियों की प्रथम स्थिति एक आवलिका प्रमाण होती है, जिससे उसके बाद के अन्तरकरण किये गये अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थान में दलिक नहीं होते हैं तो फिर क्रोधोदय में श्रेणि मांड़नेवाले को मान, माया लोभ आदि का बाद में क्रमशः उदय कहां से हो ? तो इसका उत्तर यह है कि जैसे क्षपक श्रेणि में क्रोधोदय में श्रेणि मांड़ने वाले के क्रोध को प्रथम स्थिति एक आवलिका शेष रहे तब मान आदि तीन का अन्तरकरण हुआ होने से वहाँ दलिक हैं ही नहीं किन्तु दूसरी स्थिति में वर्तमान मान के दलिकों को आकर्षित कर नीचे लाकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल में भोगे जायें, उतनी प्रथम स्थिति बनाकर वेदन करता है और मान की प्रथम स्थिति एक आवलिका रहे तब माया की और माया की प्रथम स्थिति एक आवलिका रहे तब लोभ की द्वितीय स्थिति में से दलिकों को खींचकर अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण अनुक्रम से माया और लोभ की प्रथम स्थिति बनाता है और वेदन करता है । उसी प्रकार उपशम श्रेणि में भी क्रोधोदय से श्रेणि मांड़ने वाले के क्रोध की प्रथम स्थिति एक आवलिका बाकी रहे तब मान का अन्तरकरण क्रिया होने से वहाँ दलिक नहीं हैं, परन्तु मान की ऊपर की स्थिति में से दलिकों को नीचे लाकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति बनाकर वेदन करता है । इसी प्रकार माया और लोभ के लिये भी समझना चाहिये और क्षपक श्रेणि की तरह उपशम श्र ेणि में भी ऐसा ही करने का कारण जीव स्वभाव है ।
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अब संज्वलन कषायत्रतुष्क और वेदत्रिक का स्वोदय काल बतलाते हैं
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