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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६० ७६ उन प्रकृतियों का नौवें गुणस्थान के जिस समय तक उदय होता है, उतनी प्रथम स्थिति करता है । दूसरी शेष रही ग्यारह कषाय और आठ नोकषाय कुल उन्नीस प्रकृतियों की प्रथम स्थिति एक आवलिका जितनी करता है। यहाँ जो बारह कषाय और नवनोकषाय इन इक्कीस प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है, कहा है उसका आशय यह है कि अन्तरकरण यानि उपशम भाव का सम्यक्त्व या चारित्र जितने काल रहता हो, लगभग उतने काल में भोगे जायें उतने दलिकों को वहाँ से बिल्कुल दूर कर उतनी (अन्तर्मुहूर्त प्रमाणभूमि साफ करना। यहाँ प्रश्न होता है कि यह अन्तरकरण क्रिया इक्कीस प्रकृतियों की साथ ही होती है या क्रमपूर्वक ? यदि साथ ही होती है यानि उन्नीस अनुदयवती प्रकृतियों की एक आवलिका प्रमाण स्थिति छोड़कर और उदयवती प्रकृतियों में उदयसमय से लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति, छोड़कर उसके बाद के अन्तर्मुहूर्त में भोगे जायें उतने दलिक एक स्थितिघात जितने काल में एक साथ ही दूर होते हैं तो यह अर्थ हुआ कि उन्नीस प्रकृतियों के आवलिका से ऊपर के और उदयवती प्रकृतियों के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति से ऊपर के अन्तमुहूर्त प्रमाण काल में भोगे जायें उतने दलिक दूर करता है। जिससे उतनी भूमिका इक्कीस प्रकृतियों की एक साथ साफ हो गई। यदि ऐसा हो तो जिन-जिन प्रकृतियों की गुणश्रेणियां चालू हैं, उनउनकी गुणश्रोणि-दल रचना कैसे हो? इसका उत्तर यह है कि उपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जैसे मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति दो आवलिका शेष रहती है तब गुणश्रेणि बंद हो जाती है, यह कहा है; उसी प्रकार यहाँ भी अन्तरकरण क्रिया करके जिन प्रकृतियों की प्रथम स्थिति एक आवलिका प्रमाण रखता है, उनकी उसी समय और जिन उदयवती प्रकृतियों की प्रथम स्थिति उदयकाल प्रमाण अन्तर्मुहुर्त रखता है, उनकी प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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