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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
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होने के अनन्तर मनपर्यायज्ञानावरण और (दान) अन्तराय का देशघाति रस बंध होता है।
विशेषार्थ-जिस समय सभी कर्मों का पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण स्थितिबंध होता है, उस समय असंख्यात समय के बंधे हुए कर्मों की ही उदीरणा होती है । इसका कारण यह है कि जो प्रकृति बंधती है, उसकी स्थिति की अपेक्षा जो समयादि न्यून सत्तागत स्थितियां हैं, वे ही उदीरणा को प्राप्त होती है, दूसरी नहीं। क्योंकि दीर्घ काल की बंधी हुई स्थितियां लगभग क्षय हो गई होती हैं, इसीलिए असंख्य समय के बंधे हुए कर्मों की हो उस समय उदीरण होती है। उसके बाद हजारों स्थितिबंध होने के अनन्तर मनपर्यायज्ञानावरण और दानान्तराय का देशघाति रस बंधता है । तथा
लाहोहीणं पच्छा भोगअचक्खुसुयाण तो चक्खु । परिभोगमइणं तो विरियस्स असे ढिगा घाई ॥५६॥
शब्दार्थ-लाहोहीणं-लाभान्तराय, : अवविज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण, पच्छा–पश्चात्, भोगअवक्खुसुयाण-भोगान्तराय, अचक्षुदर्शनावरण, श्रु त ज्ञानावरण, तो-उसके बाद, चक्खु-चक्षुदर्शनावरण, परिभोगमइणंउपभोगान्तराय, मतिज्ञानावरण, तो–पश्चात्, विरियस्स-वीयन्तिराय कर्म का, असेढिगा-श्रेणि पर आरूढ़ नहीं हुए, घाई–सर्वघाति ।
गाथार्थ-पश्चात् लाभान्तराय, अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण का, उसके बाद भोगान्त राय, अचक्षुदर्शनावरण और श्रु तज्ञानावरण का, उसके बाद चक्षुदर्शनावरण का देशघाति रस बंध करता है, उसके बाद उपभोगान्तराय और मतिज्ञानावरण का और उसके बाद वीर्यान्तराय का देशघाति रसबन्ध करता है । किन्तु श्रेणि पर आरूढ़ नहीं हुए सर्वघाति रस ही बांधते हैं। विशेषार्थ-मनपर्यायज्ञानावरण और दानान्तराय का देशघाति
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