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________________ पंचसंग्रह : ६ स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इस प्रकार है मोहनीय का स्थितिबन्ध अल्प, उससे नाम गोत्र कर्म का असंख्यातगुण और स्वस्थान में परस्पर तुल्य तथा उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का असंख्यातगुण, स्वस्थान में परस्पर तुल्य और उससे वेदनीय का असंख्यातगण बन्ध होता है। इसके बाद हजारों स्थितिबन्ध हो जाने के अनन्तर बीस कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वाले नाम और गोत्र कर्म के असंख्यातवें भाग ज्ञानावरण आदि तीन कर्मों का स्थितिबंध होता है। अभी तक नाम और गोत्र के बंध से असंख्यातगुण ज्ञानावरणादि तीन कर्मों का बन्ध होता था, किन्तु अब ज्ञानावरणादि तीन कर्मों से नाम और गोत्र कर्म का असंख्यातगुण बन्ध होता है । यहाँ अल्पबहुत्व इस प्रकार है-मोहनीय कर्म का स्थितिबन्ध अल्प, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का असंख्यातगुण और स्वस्थान में परस्पर तुल्य, उससे भी नाम और गोत्र कर्म का असंख्यात गुण और स्वस्थान में तुल्य, उससे वेदनीय कर्म का असंख्यातगुण स्थितिबन्ध होता है। इस प्रकार से बन्ध के अनुरूप सत्ता सम्बन्धी अल्पबहुत्व भी समझ लेना चाहिये । क्योंकि बन्ध में से स्थिति कम होने के समान ही सत्ता में से भी कम होती है। तथा असंखसमयबद्धाणुदीरणा होइ तंमि कालम्मि । देसघाइरसं तो मणपज्जव अन्तरायाणं ॥५॥ शब्दार्थ-असंखसमयबद्धाणुदीरणा-असंख्यात समय तक के बंधे हुए कर्म की उदीरणा, होइ-होती है, तंमि-उस, कालम्मि-काल में, देसघाइरसंदेशघाति रस, तो-इसके बाद, मगपज्जवअंतरायाणं-मनपर्याय ज्ञानावरण और अंतरायकर्म का। गाथार्थ-उस समय असंख्यात समय तक के बंधे हुए कर्म की ही उदीरणा होती है। उसके बाद हजारों स्थितिघात १ 'कर्म प्रकृति' में वेदनीय का विशेषाधिक स्थितिबंध बताया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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