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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७
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वीसग असंखभागे मोहं पच्छा उ घाइ तइयस्स। वीसग तओ घाई असंखभागम्मि बझंति ॥५७॥
शब्दार्थ-वीसग-बीस कोडाकोडी सागरोपम के बंध वालों, असंखभागे—असंख्यातवें भाग, मोहं-मोहनीय का, पच्छा—बाद में, उ
और, घाइ-घाति कर्म, तइयस्स-तीसरे कर्म के, वीसग-बीस कोडाकोडी सागरोपम वालों से, तओ-फिर, घाई-घाति कर्म, असंखभागम्मिअसंख्यात भाग, बझंति-बंधते हैं।
गाथार्थ-बीस कोडाकोडी सागरोपम वालों (नाम और गोत्र) के बन्ध के असंख्यातवें भाग मोहनीय का बन्ध होता है। बाद में तीसरे कर्म से नीचे घाति कर्म जाते हैं। उसके बाद बीस कोडाकोडी सागरोपम वालों (नाम और गोत्रकर्म) के असंख्यातवें भाग घातिकर्म बँधते हैं।
विशेषार्थ-बंध और सत्ता में से बहुत सी स्थिति कम होकर मोहनीयकर्म का ज्ञानावरणादि से असंख्यातगुणहीन स्थितिबन्ध और सत्ता होने के अनन्तर हजारों स्थितिबन्ध होने के बाद तथा एक साथ बन्ध में से स्थिति कम होकर उसका नाम गोत्र के नीचे असंख्यातगुणहीन बन्ध होता है । यानि नाम और गोत्र के बन्ध से असंख्यात गुणहीन मोहनीय का बन्ध होता है । तब
स्थितिबन्ध की अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकार है-मोहनीय का स्थितिबन्ध अल्प, उससे नाम और गोत्र कर्म का असंख्यातगुण और स्वस्थान में परस्पर तुल्य, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मों का असंख्यातगुण और स्वस्थान में परस्पर तुल्य बन्ध होता है । __इसके बाद पुनः हजारों स्थितिबन्ध होने के अनन्तर वेदनीय के नीचे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बन्ध होता है। अर्थात् वेदनीय से उनका बन्ध असंख्यातगुणहीन होता है। अभी तक उन चारों का बन्ध तुल्य होता था। तब
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