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________________ ७४ पंचसंग्रह : ६ बंध होता है। वह स्थितिबंध तीस कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वालों का असंख्यातवें भाग होता है। जैसा बंध वैसी सत्ता भी होती है। विशेषार्थ- इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्म के क्रम से-नाम और गोत्र कर्म का असंख्यातगुणहीन बंध होने के अनन्तर हजारों स्थितिबंध हो जाने के बाद ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय का स्थितिबंध अपने पूर्व स्थितिबंध से असंख्यातगुणहीन होता है, यानि उसके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इस समय सत्ता की अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकार होता है-नाम और गोत्र कर्म की सत्ता अल्प, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मों की असंख्यात गुण और स्वस्थान में परस्पर तुल्य उससे मोहनीय की सत्ता असंख्यात गुणी होती है। तत्पश्चात् हजारों स्थितिबंध हो जाने के अनन्तर एक ही प्रहार से अर्थात एकदम मोहनीयकर्म का पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण बंध होता है और वह भी ज्ञानावरणादि से असंख्यात गुणहीन होता है। अभी तक जो ज्ञानावरणादि की अपेक्षा मोहनीय का असंख्यातगुणा बंध होता था अब मोहनीय से ज्ञानावरणादि का असंख्यातगुणा बंध होने लगता है। सत्ता में भी इसी प्रकार से परिवर्तन होता है । तब सत्ता की अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकार है-नाम और गोत्र की सत्ता अल्प, उससे मोहनीय की सत्ता असंख्यात गुणो, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मों की सत्ता असंख्यात गुणी होती है और स्वस्थान में परस्पर तूल्य है । तथा १ पहले ज्ञानावरणादि से मोहनीय की सत्ता और बंध असंख्यात गुणा होता था, किन्तु अब प्रबल शुद्ध अध्यवसायों के कारण एकदम सत्ता में से बड़ा स्थितिघात करके सत्ता कम कर देता है । इसी प्रकार बन्ध में से स्थिति घटाकर बंध भी कम करता है । जिससे मोहनीय के बन्ध और सत्ता से ज्ञानावरणादि का बन्ध और सत्ता असंख्यातगुण होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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