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उदीरणाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४ जीव पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, वहाँ भव के प्रथम समय से लेकर बड़े अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मनुष्यगति का बंध करे और उसके बाद तिर्यंचगति बांधना प्रारम्भ करे । बंधावलिका के चरम समय में पूर्वबद्ध उस तिर्यंचगति की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है।
तियं चगत्यान पूर्वी की जघन्य स्थिति-उदीरणा भी इसी प्रकार जानना चाहिये किन्तु मात्र विग्रहगति में और उसके तीसरे समय में होती है । तिर्यंचगति का उदय तो विग्रह-अविग्रह दोनों स्थानों पर होता है, परन्तु आनुपूर्वी का उदय तो विग्रहगति में ही होता है। इसलिये उसकी जघन्य स्थिति की उदीरणा विग्रहगति में और अधिक काल निकालने के लिये तीसरा समय कहा है।
इसी प्रकार असार पांच संहननों में से वेद्यमान संहनन को छोड़ कर शेष पांचों संहननों का बंधकाल अति दीर्घ और उसके बाद वेद्यमान संहनन का बंध कहना चाहिये एवं बंधावलिका के चरम समय में वेद्यमान असार संहनन की जघन्य स्थितिउदीरणा होती है ।2।।
हास्य, रति की जघन्य स्थिति-उदीरणा साता की तरह और शोक-अरति की जघन्य स्थिति-उदीरणा असातावेदनीय की तरह कहना चाहिये।
१ अन्य एकेन्द्रियों की अपेक्षा तेजर काय, वायुकाय में तिर्यंचगतिनाम की
स्थिति की जघन्य सत्ता होती है ऐसा ज्ञात होता है, जिससे उन दोनों का ग्रहण किया है । परावर्तमान प्रकृतियां उनकी विरोधिनी अन्य प्रकृतियां बंधती हों तब अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही बंधती हैं । इसीलिये अन्तर्मुहूर्त बंधकाल का संकेत किया है । अपर्याप्त अवस्था में देव, नरकगति का बंध
होता नहीं, इसलिये मात्र मनुष्यगति का बंध ग्रहण किया है । २ जघन्य स्थिति की उदीरणा कहने का क्रम जातिनामकर्म की तरह ही
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