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पंचसंग्रह
हयसेसा तित्थठिई पल्ला संखेज्जमेत्तिया जाया । तीसे सजोगि पढमे समए उद्दीरणुक्कोसा ||३१|| शब्दार्थ - हयसेसा — कम होते-होते शेष, तित्थठिई तीर्थंकरनाम की स्थिति, पल्ला संखेज्जमेत्तिया पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र, जाया --- रह गई, तीसे उसकी, सजोगियोगिकेवली के पढमे समए - प्रथम समय में, उद्दोरक्कोसा-- उत्कृष्ट उदीरणा ।
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गाथार्थ -कम होते-होते तीर्थंकरनाम की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग शेष रह गई, उसकी सयोगिकेवली के प्रथम समय में जो उदीरणा होती है, वह उसकी उत्कृष्ट उदीरणा कहलाती है ।
विशेषार्थ - केवलज्ञान प्राप्त करने के पूर्व अपवर्तित अपवर्तित करके - अपवर्तनाकरण द्वारा कम-कम करके तीर्थंकरनाम की पत्योपम के असंख्यातवें भागमात्र स्थिति बाकी रखकर कम करते करते शेष रही उतनी स्थिति की सयोगिकेवली गुणस्थान के प्रथम समय में जो उदीरणा होती है, वह तीर्थंकरनाम की उत्कृष्ट उदीरणा कहलाती है सर्वदा उत्कृष्ट से भी तीर्थंकरनाम की इतनी ही स्थिति उदीरणायोग्य होती है, अधिक नहीं ।
प्रश्न - तीर्थंकरनाम की स्थिति तीसरे भव में निकाचित बांधने के | बाद उसकी अपवर्तना कैसे होती है ? निकाचितबंध करने के बाद अपवर्तना क्यों ?
उत्तर -- प्रश्न उचित है । लेकिन जितनी स्थिति निकाचित होती है, उसकी तो अपवर्तना नही होती, परन्तु अधिक स्थिति की अपवर्तना होती है । जीवस्वभाव से जिस समय में तीर्थंकरनाम निकाचित होता है, उससे उसकी जितनो आयु बाकी हो उतनी, भवान्तर की और उसके बाद के मनुष्यभव की जितनी आयु होना हो, उतनी स्थिति ही निकाचित होती है, अधिक नहीं। निकाचित स्थिति तो भोगकर ही पूर्ण की जाती है। उससे ऊपर की जो
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